Book Title: Sthananga Sutra Part 01 Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ प्रस्तावना . जैन धर्म दर्शन व संस्कृति का मूल आधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है। तीर्थंकर प्रभु अपन उत्तम साधना के द्वारा जब घाती कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञान केवल दर्शन को प्राप्त कर लेते है तब चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं। चतुर्विध संघ की स्थापना के पश्चात् वे जगत् के समस्त जीवों के हित के लिए, कल्याण के लिए अर्थ रूप में वाणी की वागरणा करते हैं, जिसे उन्हीं के शिष्य श्रुतकेवली गणधर सूत्र रूप में आबद्ध करते हैं। वही सूत्र रूप वाणी परम्परा से आज तक चली आ रही है। जिस समय इन सूत्रों के लेखन की. परम्परा नहीं थी, उस समय इस सूत्र ज्ञान को कंठस्थ कर स्मृति के आधार पर सुरक्षित रखा गया। किन्तु जब स्मृति की दुर्बलता आदि कारणों से धीरे-धीरे आगम ज्ञान विस्मृत/लुप्त होने लगा तो वीर निर्वाण के लगभग ९८० वर्ष पश्चात् आचार्य देवद्धिगणि क्षमा श्रमण के नेतृत्व में इन्हें लिपिबद्ध किया गया। आज जिन्हें हम आगम कहते हैं, प्राचीन समय में वे गणिपिटिक कहलाते थे। गणिपिटक में तमाम द्वादशांगी का समावेश हो जाता है। बाद में इन्हें, अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य एवं अंग उपाङ्ग मूल, छेद आदि के रूप से वर्गीकृत किया गया। वर्तमान में उपलब्ध आगम वर्गीकृत रूप में हैं। ___वर्तमान में हमारे ग्यारह अंग शास्त्र है उसमें स्थानांग सूत्र का तृतीय स्थान है। इसमें एक स्थान से लेकर दस स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित है। इस आगम में वर्णित " विषय सूची का अधिकार नंदी सूत्र एवं समवायाङ्ग सूत्र दोनों में है। समवायाङ्ग सूत्र में इसके लिए निम्न पाठ है - से कि ते ठाणे ? ठाणेणं ससमया ठाविति, परसमया ठाविजाति, ससमयपरसमया अविजात, जीवा गाविजति, अजीवा विजाति, जीवाजीवा गाविजति, लोए विजा, अलोए गविजा, लोगालोगा जाषिजति। ठाणेण दव्य गुण खेत काल पजव पपत्याण "सला सलिला य समुदा, सुरभवण विमाण आगरणाओ। पिहिमी परिमजापा, सराप गोता पजाइसंचाला॥ १॥" एक्काबह बतब बिहबतब जाव वसविह पत्तब जावाण, पोग्गलाण पलागलाई पण पलपणा भापविजात। हाल परिता पापणा, मजा अणुभागबारा, संखजामी पडिवत्तीओ, संखेना वेढा, संखेजा सिलीगा, सौखजीओ संगहणीओ। से णं अंगट्ठयाए तइए अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अग्झयणा, एक्कवीसं उद्देसणकाला, बावत्तरि पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णताई। संखिजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पजवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया, कडा, णिबद्धा, णिकाइया, जिणपण्णत्ता भावा आपविजंति, पण्णविनंति, पविजंति, दंसिर्जति, णिदंसिजति, उवदंसिजति। से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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