Book Title: Sramana 2014 04
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 22
________________ जैन साधना में श्रावक धर्म : 17 अभिप्राय को जानकर दूसरो से प्रकट कर देना साकार-मन्त्र भेद अतिचार है। सत्याणुव्रत की पाँच भावनायें तथा उनका स्वरूपआचार्य श्री उमास्वाति के अनुसार क्रोध, लोभ, भय, हास्य एवं सूत्र विरुद्ध बोलने का त्याग करना ही सत्याणुव्रत की पाँच भावनायें हैं क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषाणं च पञ्च।' उपर्युक्त पाँच भावनाओं को सर्वदा याद रखने से व्यक्ति असत्य भाषण का त्याग कर देता है, इसप्रकार सत्याणुव्रत परिपक्व तथा निर्मल रहता है, इन भावनाओं का वर्णन संक्षेप में निम्नलिखित है१. क्रोधत्याग- व्यक्ति को क्रोध नहीं करना चाहिए। यदि किसी बाह्य प्रबल कारण से क्रोध उत्पन्न हो जाए तो अपने शुद्ध विचारों से विवेक द्वारा उसे शान्त कर लेना चाहिए। लोभ त्याग- ऐसे लोभ को छोड़ देना चाहिए, जिससे असत्य में प्रवृत्ति होती हो भय त्याग- धर्म विरोध के भय से, लोक विरोध के भय से तथा राज विरोध के भय से भी असत्य भाषण नहीं करना चाहिए। हास्य त्याग- ऐसा परिहास भूलकर भी नहीं करना चाहिए, जिससे किसी जीव को पीड़ा पहुंचे। सूत्र विरुद्ध वचन त्याग- जिन-सूत्र से विरुद्ध वचन नहीं बोलना चाहिए। ३. अचौर्याणुव्रत (अस्तेय अणुव्रत) - वह श्रावक अचौर्याणुव्रत का धारक है, जिसमें बिना दिये हुए दूसरे के द्रव्य को लेने का भाव नहीं होता है, बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य में लेने का भाव नहीं होता है, कपट से, लोभ से, अभिमान से तथा क्रोध से

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