Book Title: Sramana 2014 04
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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34 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014 रहे हैं।' आचार्य समन्तभन्द्र के शब्दों में 'ज्ञान ध्यान तपोरत्त: तपस्वी सः प्रशस्यते।' वस्तुत: आचार्य श्री ज्ञान-ध्यान में तपस्वी बन कर स्व-पर के : कल्याण में मोक्षमार्ग को प्रशस्त कर रहे हैं। आचार्य श्री की समस्त संस्कृत साहित्य कृतियों की भाषा अत्यंत सरल और सौष्ठव पूर्ण है और उसमें माधुर्य का भी समावेश है। उसमें प्रायः लम्बे समासों तथा क्लिष्ट पदावली का अभाव है। उनकी वाक्य योजना सरल किन्तु प्रभावोत्पादक है। भाषा में कहीं अस्वाभाविकता के दर्शन नहीं होते हैं। यही कारण है कि उनके श्लोकों एवं टीका ग्रन्थों को पढ़ते ही उनका अभिप्राय ज्ञात हो जाता है। पूज्य बालाचार्य श्री योगीचन्द्र सागर जी महाराज द्वारा रचित 'भक्ति रत्नावली'६ अपरनाम आराधनाषष्ठि संस्कृत भक्ति साहित्य की अनुपम कृति है। यह संस्कृत के विभिन्न ६२ छन्दों में निबद्ध भक्ति की मुक्तक काव्य रचना हैं, जिसमें स्वनाम धन्य रचनाकार ने अपने अन्तर से निःसृत भक्ति भावों को रत्नावली के रूप में गूंथा है, जहाँ आराधक अपने आराध्य से आत्माराधना पूर्वक उनके सामीप्य की मनोभिलाषा रखता हैप्रस्तुत रचना के माध्यम से आचार्य ने भगवान के प्रति भक्ति करने के विभिन्न उपायों को यहाँ दर्शाया हैं। हमें भक्ति क्यों करनी चाहिए एवं किस प्रकार से करनी चाहिए इन सभी की विस्तृत व्याख्या 'भक्ति रत्नावली' में की गई है। भक्त भगवान से प्रार्थना करता है -
नो मुक्त्यैस भृयामिनाथ विभवैः कार्य न सांसारिकैः,
किं त्वा योज्य करौ पुनः पुनरिद त्वामीशमभ्यर्थये। ___स्वप्ने जागरणे स्थितौ विचलने दुःखे सुखे मन्दिरे,
कान्तारे निशि वासरे च सततं भक्ति मामस्तु त्वयि।।३७।। हे नाथ! मुझे न तो मुक्ति की इच्छा है और न सांसारिक वैभव से ही प्रयोजन है। हे ईश! मैं तो हाथ जोड़कर आपसे बारम्बार यही माँगता हूँ कि सोने, जागने, खड़ा होने, चलने, सुख-दुःख, घर, वन, रात्रि और दिन में सब समय आप में मेरी भक्ति बनी रहे।