Book Title: Sramana 2014 04
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 34
________________ जैन साधना में श्रावक धर्म : 29 सल्लेखनाव्रत के पाँच अतिचार - सल्लेखना लेने के बाद जीने की इच्छा करना, कष्टों से घबड़ाकर शीघ्र ही मरने की इच्छा करना, भूख आदि कष्टों से भयभीत होना, मित्रों को याद करना, भविष्यकाल में भोगों की इच्छा करना- ये पाँच अतिचार सल्लेखना व्रत के हैं। श्रावक की प्रतिमायेंप्रतिमा का अर्थ है 'प्रतिज्ञाविशेष' अथवा 'व्रत ग्यारह विशेषा' डॉ० मोहनलाल मेहता के शब्दों में "प्रतिमास्थित श्रावक श्रमणवत् व्रत विशेषों की आराधना करता है। कोशकार प्रतिमामूर्ति, प्रतिकृति, प्रतिबिम्ब, छाया, प्रतिच्छाया आदि अर्थ देते हैं। चूंकि प्रतिमाओं की आराधना करने वाले श्रावक का जीवन श्रमण के सदृश होता है, अर्थात् उसका जीवन एक प्रकार से श्रमण जीवन की ही प्रतिकृति होता है, अत: उसके व्रतविशेषों को प्रतिमायें कहा जाता है।२२ इस प्रकार बारह व्रतधारी श्रावक उपर्युक्त समय पर आत्मसाधना के लिए निम्नलिखित ग्यारह प्रतिमाओं को क्रमश: धारण करता है। प्रथम प्रतिमा 'सम्यक् दृष्टि' (दर्शन प्रतिमा) है। इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक शुद्ध दृष्टि रखते हुए भी किसी भी व्रत का विधिवत पालन नहीं कर पाता है। द्वितीय प्रतिमा का नाम 'व्रत प्रतिमा' है। इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक पञ्चाणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत का नियमानुसार पालन करने का अभ्यास करता है। तृतीय ‘सामायिक प्रतिमा' है। इसमें श्रावक क्रोधादि कषायों अर्थात् सांसारिक वासनाओं पर विजय प्राप्त कर, आर्त्त-रौद्र भाव का त्याग कर सर्वजीवों के प्रति समता भाव रखता है। चतुर्थ प्रतिमा 'प्रोषधोपवास' में वह शास्त्रानुसार उपवास विधि का पूर्णत: पालन करने लगता है।

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