Book Title: Sramana 2014 04
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 27
________________ 22 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2 / अप्रैल-जून 2014 परिग्रह परिमाण अणुव्रत- जैन साहित्य में व्यक्ति की इच्छाओं को आकाश के सदृश असीम बताया गया है - इच्छाहु आगासमा अणंतिया । १ १७ -- समन्तभद्र के अनुसार खेत, मकान, चाँदी, सोना, धन-धान्य, दासदासी, कुप्य, कपास आदि तथा भाँड- पात्र आदि इन दस प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करके उससे अधिक इच्छा न करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है . 'धनधान्यादिग्रन्थं, परिमाय ततोऽधिकेषु निरपुहता।' परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाण ।। १८ जैन दर्शन के अनुसार किसी भी वस्तु के अत्यधिक संग्रह से व्यक्ति की आत्मा का दमन होता है तथा तृष्णाओं की वृद्धि होती है। निस्सन्देह तृष्णा पाप की उत्पादक, आकुलता की जड़ तथा दुःख देने वाली है। इसलिए तृष्णा कम करने तथा इससे मुक्त होने के लिए परिग्रह परिमाण करने से बढ़कर अन्य कोई और उपाय नहीं है। परिग्रहपरिमाणाणुव्रत के अतिचार तथा उनका स्वरूप 'क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः । १९ २ उपर्युक्त श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि क्षेत्र वास्तु, हिरण्यसुवर्ण, धनधान्य, दासी-दास तथा कुप्य इन पाँच वस्तुओं के प्रमाण एवं परिणाम का जब अतिक्रमण होता है, तभी परिग्रह परिमाण के पाँच अतिचार बनते हैं १ - क्षेत्रवास्तुपरिमाणातिक्रम क्षेत्र वह है, जहाँ धान्यादि की उत्पत्ति होती है, जिस गृह में निवास किया जाता है, उसे वास्तु कहते हैं। इनका परिमाण करके अतिक्रमण करना क्षेत्रवास्तुपरिमाणातिक्रम नामक परिग्रह परिमाण अणुव्रत का अतिचार है। 1 हिरण्यसुवर्णपरिमाणातिक्रम चाँदी के आभूषण, हिरण्य एवंं सोने के आभूषण सुवर्ण कहे जाते हैं। इनके परिमाण का अतिक्रमण करना ही हिरण्यसुवर्णपरिमाणातिक्रम अतिचार है। -

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