Book Title: Sramana 2014 04
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ 24 : भ्रमण, गुणव्रत जैन आचारशास्त्र में पञ्चाणुव्रतों की रक्षा तथा विकास के लिए तीन गुणव्रत बताये गये हैं - वर्ष 65, अंक 2 / अप्रैल-जून 2014 - १. दिव्रत २. अनर्थदण्ड व्रत ३. भोगोपभोगपरिमाण व्रत १. दिव गृहस्थ को अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में देश-देशान्तर जाने की आवश्यकता भी पड़ती है। अतः उसके लिए यह निर्देश है कि वह अपना आयात-निर्यात एक सीमा के अन्दर निश्चित कर लें और उसी सीमा के अन्दर अपना व्यवसाय करें। अपनी तृष्णावृत्ति पर नियंत्रण कर व्यवसाय आदि के लिए दिशाओं की सीमा निश्चित करना और उस सीमा का उल्लंघन न करना ही दिग्व्रत है। धर्मसंग्रहश्रावकाचार में उल्लिखित है कि दसों दिशाओं का परिणाम करके जन्मपर्यन्त इससे बाहर नहीं जाऊँगी, ऐसी प्रतिज्ञारूप मर्यादा में रहना दिग्व्रत है - B दशदिक्ष्वपि संख्यानं कृत्वा यास्यामि नो बहिः । तिश्ङ्गेदित्यामृतेयत्र तत्स्यादिग्विारतिंव्रतम्।। २३ दिव्रत के पांच अतिचार - जैन आचार - शास्त्र में उल्लिखित है कि निश्चित की गई सीमा को अज्ञानतावश या प्रमादवश भूल जाना, ऊर्ध्वभाग (पर्वतादि के ऊपर चढ़ना) की मर्यादा का उल्लंघन करना, अधोभाग (कूप, वापिका, खान आदि में नीचे उतरना ) की मर्यादा का उल्लंघन करना, तिर्यक् भाग(ऊँची व नीची दिशाओं के अतिरिक्त पूर्वादि समस्त दिशाओं में जाना) की मर्यादा का उल्लंघन करना तथा क्षेत्रवृद्धि-ये दिग्व्रत के पाँच अतिचार हैं सीमाविस्मृतिरूर्ध्वाषस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमाः । अज्ञानतः प्रमादाद्वा, क्षेत्रवृद्धिश्च तन्मलाः । । २४

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98