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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६ :
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बड़े चुस्त हैं, प्रणय दृश्यों के कथन में रचनाकार सिद्धहस्त हैं। प्रणय दृश्य का एक उदाहरण देखिए : चुलहिमवंत पर्वत पर पहुँच कर वहाँ के सुहावने वातावरण में प्रभावती और वसुदेव रति-क्रीड़ा में संलग्न हो गये।
( कथग्गहाकडढिउण्णति वदणा परित्तंविता, कमसो य वामकरदलो दरेणं पायिसं टांटा लग्गा से रति करंडग करमोरु-उरुजयल रति लक्खे पासंस पदेसेसु कुकंदरेसु च सुंदरी)।
कथाकार की कल्पना अद्भुत और अनूठी है। विमान का वर्णन देखिये :
हम्मियतलट्टियेन दइयासहितेणं भिन्नदनीलंमरगत मणहर भणि किरेण समातेणं णभेण एज्जमाणं विमाणं। अवि य जं तं अणेग खम्ब सतसन्निविट्ठ णील ट्ठिय सालभजिया कटितं णाणामणी-कणग-रयण-किरण पवरं करणिगरं पज्जिलंत जलजलतजलेंत-कंटपहसंत पिंगल कराल वेलवित सूरकिरण-फलंबवायी पंचवनिय-मणि-रयण-कुरंत कोहिम्-तलं, चामीकर-किरण-परिकुरंट उस्सेह सस्सिरीट रुयं, धक्कट्टग-लट्ठ-मतसिलिट्ठ सुविसिट्ठ कह कम्मक पहट्ठगयगंध पवर भूसियम हसत-मूस्टि कमल जला-पवररमणुम्मिल्ल किरण-पुउरिय-लय-पंकम-वियसिय-रयमड्ढयंदणिजहं, चारुट्ठिद्रमोहत सारार-तरंग-भंगुर-भ्रमग-भतुल्ल सत्तप ससंट-कंट मणि-णाग-पूप वर तुरंग, मदार, कुंजर, रूक, चमर, सरभ, संदर, हरि, हरिण, सारस, चकोर, वर, वसभ-सुर-सुहग या ण-रवमर-मोर-पारावत-जुगल-मणि-सकल-सोहित-तितंव।२४
शब्द-योजना में चातुर्य कथाकार की प्रतिभा का दिग्दर्शन कराता है। प्रकृति को मानवीय रूप देने में दोनों रचनाकारों ने अपनी प्रतिभा तथा कल्पना शक्ति का सुन्दर परिचय दिया है। प्रकृति के फल-फूलों, पशु-पक्षियों के अंगों की उपमा देकर मानवीय सौन्दर्य का प्रदर्शन किया है। उपमायें भी ऐसी हैं जिनका जनसाधारण के साथ अत्यधिक परिचय है। जम्बूकुमार का रंग कमल और कनेर के पुष्पों की केशरिकाओं के समान निर्मल था, ताराओं से घिरे शरद् पूर्णिमा के चन्द्र की तरह जम्बूकुमार पत्नियों के साथ बैठा था।५ चंडाल कन्या वर्षाकाल में उमड़ती मेघराशि के समान काली थी। आभूषणों से अनुरंजित वह तारों से सुशोभित रजनी की तरह लगती थी।२६ देवों और मनुष्यों की परिषद् में बैठे शान्तिनाथ द्वितीय शरद चन्द्र की भाँति प्रतीत होते थे, डूलते हुए चामरों से हंसों के बीच देवसुन्दरियों के मुखकमलों जैसे, सुर-आसुरों से घिरे गजकुल से सेवित वन की भाँति, चारण श्रमणों के सान्निध्य से प्रसन्न सरोवर की भाँति फहराती हुई विविध ध्वजाओं से अलंकृत धवल मेघ के समान दीखते थे, विनय से झुके हुए मनुष्य वृंद के बीच बैठे भगवान् फलभार से झुके शालिक्षेत्र की उन्नत भूमि के समान दिखायी देते थे। मुनियों को तपोलक्ष्मी से परिदीप्त, शरत्कालीन सरोवर की तरह प्रसन्न हृदय वाले, शारदीय चन्द्र की भाँति सौम्य कहा गया है। वासुदेव कृष्ण श्याम मेघ की छवि के धारक थे, विकसित कमल जैसी आँखें थीं, पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख था, सर्प के फन के समान दोनों भुजायें
थी, हाथ पल्लव के समान कोमल थे, कटिभाग सिंह की भाँति स्थिर और सुस्थित था, Jain Education International For Private & Personal Use Only
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