Book Title: Sramana 1996 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 28
________________ श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६ : २७ जलगृह और कदलीगृह में ढूँढ़ने लगा, आवाज देने लगा, 'प्रिये, क्यों कुपित हो गयी गई हो, मैं तुम्हारी इच्छा का दास हूँ, मुझे दुःख मत दो, कहाँ छिपी हो, इस प्रकार बोलता हुआ वह घूमने लगा। दासियाँ इस स्थिति में स्वामी को देखकर बड़ी मुश्किल से आँसुओं को रोकती थीं। वह तरह तरह से उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करती हुई साथ नहीं छोड़ती थीं। उसका मन गाने-बजाने, खाने-पीने, लिखने-पढ़ने किसी में भी नहीं लगता था। चिन्तातुर प्रिया के सामने न रहने पर भी उसे सामने खड़ी देखता, रात नींद भी नहीं आती थी। इस प्रकार विसूरते हुए वह समय काटने लगा।६ धम्मिल के विरह में गणिका वसन्ततिलका ने अपने सब आभूषणों का त्याग कर दिया था, मंगल निमित्त केवल दाहिने हाथ में एक अंगूठी पहनी थी। उसके कपड़े मैले और जीर्ण हो गये थे, उसने ताम्बूल खाना छोड़ दिया था, उसके सभी अंग दुर्बल हो गये थे, कपोल पीले पड़ गये थे, आँखें आँसुओं से भरी रहती थीं। विरह पीड़ित वेगवती वसुदेव के विरह में एकाग्र मन से विद्यायें नहीं सीख पा रही थी। वह अपनी विरह गाथा में वसुदेव को लिखती है कि उसे न तो मायका छोड़ने का दुःख है और न ही विद्या सिद्ध न होने का, उसके लिए सबसे बड़ा दुःख वसुदेव के अलग होने का है।८ सोमश्री मानसवेग के प्रमदवन में ऐसी लग रही थी जैसे रावण की अशोक वाटिका में सीता। उसका मुख म्लान हो गया था, आँखें आँसुओं से भरी थीं। आभूषणों से रहित मैले-कुचैले वस्त्र पहने हुए धूम अग्नि की तरह राहु के मुख से निकलती हुई चन्द्रिका की तरह चोटी केशसज्जा रहित, एक ही चोटी वाली, सूखे हुए शरीर वाली तपस्विनी लग रही थी। विरह पीड़ित सुन्दरी स्नान, विलेपन, अंजन आदि श्रृंगार नहीं करती थी, उसकी आँखें आँसुओं से भरी रहती थीं, उसे दुःखी देखकर अंत:पुर के लोग भी दुःखी रहते थे। रुक्मिणी के पुत्र के अपहरण हो जाने पर रुक्मिणी का मूछित हो जाना, स्वस्थ हो जाने पर पुत्र-शोक में विलाप करना कि मेरी निधि नष्ट हो गई, मुझ अभागिन के नवोदित बालचन्द्र को राहु ने ग्रस लिया, मैंने कौन सा अपराध किया था, अब मैं अन्धकारपूर्ण दिशाओं में कहाँ दूदूँ अपने पुत्र को, करुण रस की अभिव्यक्ति करता है। अपनी निर्दोष पत्नी को मृत्युदण्ड देने वाला राजा दुःख से अभिभूत हो गया। अपनी प्रिया के वियोग में उसने मृत्यु का वरण करने की ठान ली। उसने अपने लिए चिता बनवाई, पुरोहित को बुलवा लिया।५२ मानसवेग ने जब वसुदेव का कटा हुआ सिर प्रभावती की गोद में डाल दिया और उसे कहा कि वसुदेव मर चुका है, अत: तुम मेरी पत्नी बन जाओ तो प्रभावती ने उसे फटकारते हुये कहा - ऐसी बात कहते हुए तुम्हारे जिह्वा क्यों नहीं कट गई, तुम्हारी पत्नी बनने से पहले मैं मृत्यु का वरण कर लूँगी। वह वसुदेव का सिर गोद में रखकर विलाप करने लगी, अपना शरीर पटकती हुई रोने पीटने लगी। मेरे नाथ, प्रिय ! बड़ी-बड़ी आँखों वाले सुवदन मैं पुण्यहीन तुम्हारे बगैर कैसे रहँगी। आज जो मेरे पति के जीवित होने का सन्देश लायेगा, उसकी मैं आजन्म दासी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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