________________
२८ : श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९६
बन जाऊँगी। इस प्रकार तरह-तरह से विलाप करने लगी। जंगल में नल के द्वारा छोड़ी गई दमयन्ती अपने आपको अकेला और निःसहाय पाकर तरह-तरह से विलाप करने लगी, 'स्वामी, तुम तो क्षण भर के लिये भी मुझे अकेली नहीं छोड़ते थे, अब जंगली जानवरों और चोर - लुटेरों के बीच अकेली छोड़कर क्यों चले गये। उपहास छोड़ो सामने आ जाओ, मुझ अभागिन को मेरा स्वामी दे दो। इस प्रकार उसका करुण क्रन्दन सभी दिशाओं में फैल गया । १४ पति के मुख से दूसरी स्त्री का नाम सुनकर स्त्रियाँ ईर्ष्या से जलभुन जाती थीं। धम्मिल के मुख से गणिका का नाम सुनकर विमलसेना का व्यवहार रौद्ररस की अनुभूति करवाता है। वह ईर्ष्या से अभिभूत हो गई, क्रोध से दंत किटकिटाने लगी, दंताग्र से हल्के-हल्के होंठ काटने लगी, ललाट पर भृकुटि तन गई, आँखों में आँसू आ गये, कण्ठ अवरुद्ध हो गया, अव्यक्त शब्दों में कुछ भुनभुना रही थी, क्रोध से उसका सिर हिल रहा था, जूड़ा बिखर गया था, फूल नीचे गिर गये थे, खिसका हुआ रक्तांशुक करधनी की डोरी से आ लगा था। धम्मिल पर चरण प्रहार करते हुए कहने लगी 'अब वसन्तसेना ही तुम्हें बतायेगी ।"" वसुदेव के वैडूर्यमाला के साथ रत्नजड़ित पात्रों में मदिरा पीते हुए देखकर अनिलयशा की दृष्टि विषनागकन्या की तरह क्रोधित हो गई। फटकारते हुए उसने वैडूर्यमाला को कहा, नीच तुमने कुल के अनुसार ही काम किया है । ५६
आचार्य की कृति में कहीं हृदय को उन्मुक्त करने वाला विलास है तो कहीं अन्तरात्मा को बेसुध करने वाला सौन्दर्य और कहीं मानस तल को तरंगित करने वाली हास्य लहरी, नारियों का श्रृंगार विपर्यय हास्य रस की व्यंजना का हेतु बना गया है। वसुदेव के रूप-सौन्दर्य से मुग्ध नारियाँ पागलों की तरह सुधबुध खोकर उनके पीछे चल देती थीं, वह खिड़कियों और झरोखों पर वसुदेव के इंतजार में मूर्ति बन कर बैठी रहती थीं, स्वप्र में भी वसुदेव का नाम बड़बड़ाती थीं, अगर बाजार में सब्जी भाजी भी लेने जातीं तो दुकानदार से सब्जी के बजाय वसुदेव का दाम पूछने लगतीं, रोते हुए बच्चों को संभालने के लिये कहते तो गाय के बछड़े को बाँधने लगतीं, घर के कामकाज छोड़ देतीं, पूजा की थाली भी नहीं सजातीं।" सत्यभामा का नाई रुक्मिणी के केश - मुंडन के लिए आया था। ब्राह्मण वेषधारी कुमार प्रद्युम्न ने नापितों से पूछा, आप लोग बदर मुण्डन जानते हैं। नापितों के इंकार करने पर कुमार ने उन्हें बदर मुण्डन सिखाने के लिये नापितों के सिर से चमड़ा सहित बाल छील कर उसके हाथ में पकड़ा दिये। जब यादव वृद्ध केश लेने के लिये आये तो उसने अपनी विद्या के बल से जिन आसनों पर उनको बिठाया था उनके साथ चिपका दिया। जब वह जाने लगे तो चिपके हुए आसनों से लज्जित हो गये। उनके साथ आये हुए नापितों की भी ऐसी मति भ्रम कर दी कि वह आपस में ही एक दूसरे के बाल काटने लगे। उन्होंने किसी का चिरिका मुण्डन कर दिया, किसी का आधा सिर मूड़ दिया, किसी की आधी दाढ़ी मूछे। इस प्रकार सब दासियों के उपहास का पात्र बने लौट गये । ५८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org