Book Title: Sramana 1996 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 116
________________ श्रमण/अप्रैल-जून/ १९९६ है कि वह वैचारिक संकीर्णता का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है।" इस उदारता को अहिंसा, अपरिग्रह, तथा अनेकान्त के विवेचनों से दर्शाने का भरपूर प्रयास किया गया है। ये सभी सिद्धान्त प्राचीन काल से चले आ रहे हैं । किन्तु व्याख्यानों में इन्हें आज की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत करके इनके सम-सामयिक महत्त्व को दिखाया गया है। अपने विचार की सम्पुष्टि के लिए विद्वान व्याख्याता ने आधुनिक चिन्तकों जैसे राष्ट्रकवि दिनकर, युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रो० महेन्द्र कुमार (न्यायाचार्य) आदि के मतों का उल्लेख किया है। मानव जीवन की जो भी समस्याएँ हैं उनके समाधान तभी मिल सकते हैं जब मानवजीवन के प्रमुख दो अंगों नारी और पुरुष के बीच समानता हो, सामंजस्यता हो। इसके लिए डॉ० सूरिदेव ने कहा है S : ११५ “निश्चय ही महावीर की नारी और पुरुष की समानता की बात वैचारिक स्तर पर हमें अपनी ऐतिहासिक भूलों को सुधारने की प्रेरणा देती है। खासकर चन्दनबाला के उपाख्यान से यह स्पष्ट है कि महावीर के विचार नारी को निर्भय और नि:शंक होकर यन्त्रणा मुक्त जीवन जीने तथा अपना सही स्वरूप समझने में सहायता करते हैं। नारी न केवल मानसिक वरन् शारीरिक स्तर पर भी पुरुष के समकक्ष है और अपने पुरुषार्थ से वह पुरुष की तरह मोक्ष की भी अधिकारिणी हो सकती है। " इस तरह यह संकलन बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसके लिए डॉ० श्री रंजन सूरिदेव तो साधुवादार्ह हैं ही, डॉ० युगल किशोर मिश्र भी सम्पादन एवं व्याख्यान व्यवस्था के लिए बधाई के पात्र हैं। विश्वास है कि विद्वानों के द्वारा इस रचना का भरपूर स्वागत होगा। डॉ० बशिष्ठनारायण सिन्हा पुस्तक : श्री परमात्म प्रकाश विधान, रचनाकार : राजमल पवैया, प्रकाशक : तारादेवी पवैया ग्रंथमाला, ४४ इब्राहीमपुरा, भोपाल - ४६२००१, पृष्ठ : ३८४, मूल्य : ३२ रुपये । For Private & Personal Use Only श्री परमात्म प्रकाश विधान के रचयिता श्री राजमल पवैया हैं। उन्होंने जैन धर्मदर्शन से सम्बन्धित एक सौ से भी अधिक पुस्तकें लिखी हैं। 'परमात्म प्रकाश विधान' का मूल रूप ग्रन्थ 'परमात्मा प्रकाश' के नाम से जाना जाता है। इसकी रचना आचार्य योगीन्दु देव ने की थी जब उनके शिष्य मुनि प्रभाकर भट्ट ने परमात्म तत्त्व को विवेचित करने के लिए कहा था। अब तक की उपलब्ध अपभ्रंश रचनाओं में इसे सबसे प्राचीन माना जाता है । ग्रन्थ तीन अधिकारों में विभाजित है। प्रथम अधिकार में बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा को विश्लेषित किया गया है तथा दूसरे और तीसरे अध्यायों में मोक्ष, मोक्ष-फल और मोक्षमार्ग के विवेचन हैं। राजमल पवैया ने परमात्म प्रकाश को हिन्दी में छन्दबद्ध प्रस्तुत किया है Jain Education International www.jainelibrary.org

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