Book Title: Sramana 1996 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 115
________________ ११४ : श्रमण/अप्रैल-जून/ १९९६ पुस्तक : कीर्ति स्तम्भ, प्रकाशक : श्री दिगम्बर जैन समिति एवं सकल दिगम्बर जैन समाज, अजमेर, मूल्य : रु० १८५ मात्र । आचार्य ज्ञानसागर प्रणीत प्रस्तुत रचना के पाँच खण्ड हैं। प्रथम खण्ड वीरोदय - महाकाव्य का समीक्षात्मक अनुशीलन, द्वितीय खण्ड चातुर्मास कीर्तिस्तम्भ १९९४, तृतीय खण्ड दिगम्बर संस्कृति का एक उदीयमान नक्षत्र, चतुर्थ खण्ड अजमेर के आस्था स्तम्भ तथा पंचम खण्ड - मुनि श्री सुधासागरजी महाराज का अजमेर में अभूतपूर्व चातुर्मास । इसमें प्रथम खण्ड प्रधान है। इस खण्ड में आचार्य ज्ञानसागर महाराज द्वारा रचे गये महाकाव्य वीरोदय के विभिन्न पक्षों पर समीक्षात्मक निबन्ध हैं जो वीरोदय पर ही आहूत संगोष्ठी में पढ़े गये थे। वीरोदय में विवेचित विभिन्न विषयों की समीक्षा विद्वानों ने अपने-अपने लेखों में की है। उस समीक्षात्मक निबन्धों की समीक्षा मुनिश्री सुधासागर जी ने की है और पुनः मेरे सामने इस रचना की समीक्षा करने की बात आ पड़ी है। यह तो समीक्षा दर समीक्षा की बात हो गयी। मुनिश्री के द्वारा की गयी समालोचनाएँ अपने आपमें पर्याप्त हैं क्योंकि उनमें विषयों के गुण-दोष दिखाने के साथसाथ उनकी स्पष्टता भी प्रस्तुत की गई है और मुनिश्री के द्वारा की गई समीक्षा की समीक्षा की जाय तो न उसकी कोई उपयोगिता होगी और न कोई अर्थ | - हाँ, इतना मैं अवश्य कहूँगा कि निबन्धों को वर्गों में विभाजित करके रखा जाता तो अच्छा होता, जैसे दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक आदि, जिससे पाठकों को सुविधा होती। साथ ही यदि प्रथम खण्ड को बिल्कुल अलग छापा जाता तो और अच्छा होता। क्योंकि जो विद्वान इसे भेंट स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकते वे आसानी से खरीद लेते । अन्य खण्ड भी विषयानुकूल सही और सुन्दर हैं। रंग रूप की दृष्टि से ग्रन्थ बहुत ही आकर्षक है। इसके लिए प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं। डॉo बशिष्ठनारायण सिन्हा Book : Vaishali Institute Research Bulletin No. 9, General Editor: Dr. Yugal Kishore Mishra, Research, Institute of Prakrit Jainlogy and Ahimsa, Basokund, Vaishali, Muzaffarpur ( Bihar ), 1994, p. 90. प्रस्तुत रचना प्राकृत, जैनशास्त्र अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली की शोध पत्रिका के रूप में सामने आई है किन्तु इसमें 'जगदीशचन्द्र माथुर व्याख्यानमाला' १९९३ के अन्तर्गत डॉ० श्री रंजन सूरिदेव द्वारा दिये गए व्याख्यानों का संकलन है। सम्पादकीय में डॉ० सूरिदेव को प्राकृत - संस्कृत-हिन्दी का धुरिकीर्तनीय मनीषी कहा गया है। किन्तु उनके व्याख्यानों से यह प्रमाणित होता है कि जैन दर्शन में भी उनकी अच्छी पैठ है। उन्होंने अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में कहा है " श्रमण-संस्कृति का दृष्टिकोण इसलिए उदात्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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