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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६
हेमचन्द्रसूरि
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है आप हर्षपुरीयगच्छालंकार अभयदेवसूरि के शिष्य और पट्टधर थे। श्रीचन्द्रसूरि विरचित मुनिसुव्रतचरित (रचनाकाल वि० सं० ११९३/ई० सन् ११३७) एवं राजशेखरसूरि कृत प्राकृतद्वयाश्रयवृत्ति की प्रशस्तियों से इनके सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। विशेषावश्यकभाष्यबृहवृत्ति (रचनाकाल वि० सं० ११७०/ई० सन् १११४) की प्रशस्ति में इन्होंने स्वरचित ९ ग्रन्थों का उल्लेख किया है,२२ जो इस प्रकार हैं :
१. आवश्यकटिप्पण, २. शतकविवरण, ३. अनुयोगद्वारवृत्ति, ४. उपदेशमालासूत्र, ५. उपदेशमालावृत्ति, ६. जीवसमासविवरण, ७. भवभावनासूत्र, ८. भवभावनाविवरण, ९. नन्दीटिप्पण।
आवश्यकटिप्पण : ४६०० श्लोकों की यह कृति आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित आवश्यकवृत्ति पर लिखी गयी है। इसे आवश्यकवृत्तिप्रदेशव्याख्या के नाम से भी जाना जाता है। इस पर हेमचन्द्रसूरि के ही एक शिष्य एवं पट्टधर श्रीचन्द्रसूरि ने एक और टिप्पण लिखा है जो प्रदेशव्याख्याटिप्पण के नाम से प्रसिद्ध है।
_शतकविवरण : शिवशर्मसूरिविरचित प्राचीन पंचम कर्मग्रन्थ शतक पर मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने संस्कृत भाषा में ३७४० श्लोक प्रमाण वृत्ति अथवा विवरण की रचना की। जैसलमेर के ग्रन्थभंडार में १३वीं-१४वीं शती की इसकी कई प्रतियाँ संरक्षित
अनुयोगद्वारवृत्ति : यह अनुयोगद्वारसूत्र के मूलपाठ पर ५९०० श्लोकों में रची गयी है। इसमें सूत्रों के पदों का सरल व संक्षिप्त अर्थ दिया गया है। कलकत्ता, बम्बई एवं पाटन से इसके चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।२३
उपदेशमालासूत्र : सुभाषित और सूक्ति के रूप में रचित जैन मनीषियों की अनेक कृतियाँ मिलती हैं। यह कृति भी उसी कोटि में मानी गयी है। इसमें सदाचार और लोकव्यवहार का उपदेश देने के लिए स्वतंत्र रूप से अनेक सुभाषित पदों का निर्माण किया गया है, जिसमें जैनधर्मसम्मत आचारों और विचारों के उपदेश प्रस्तुत किये गये हैं। रचनाकार ने अपनी इस कृति पर वि० सं० ११७५/ई० सन् १११९ में वृत्ति की भी रचना की है। पाटण के जैन ग्रन्थ भण्डारों में इसकी कई प्रतियाँ संरक्षित हैं। जैन श्रेयस्कर मंडल, मेहसाणा से ई० सन् १९११ में प्रकाशित भी हो चुकी है।
जीवसमासविवरण : आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित यह कृति ६६२७ श्लोकों में निबद्ध है। इसकी स्वयं ग्रन्थकार द्वारा लिखी गयी एक ताड़पत्रीय प्रति खंभात के शांतिनाथ जैन भंडार में संरक्षित है। इस प्रति से ज्ञात होता है कि यह चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज के शासनकाल में वि० सं० ११६४/ई० सन् ११०८ में पाटण में लिखी गयी।
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