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श्रमण / अप्रैल-जून १९९६
४८. रत्न जो आभरण में स्थान नहीं पाता विनाश को प्राप्त हो जाता है। ( पृ० ४०३)
४९. हस्तामलक की भाँति । ( पृ० ११ )
५०. धरती का आदमी चरण किरण कैसे छू सकता है। (पृ० २३). ५१. सिंह के दाँत किसने गिने हैं। ( पृ० ३१९ )
२२
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५२. उत्साह में ही लक्ष्मी निवास करती है। ( पृ० ४४५)
५३. दरिद्र मृतक के समान है। ( पृ० ४४५)
५४. असहाय व्यक्ति का हस्तगत अर्थ भी नष्ट हो जाता है। ( पृ० २४)
५५. चन्द्रमा में किसकी दृष्टि नहीं रमेगी। ( पृ० २२)
५६. उद्यम के साथ सिद्धियाँ आ मिली हैं। ( पृ० ९८३)
५७. नई माँ का दूध पीना। ( पृ० ११६ )
५८. मयूर की भाँति हर्षित होना। ( पृ० ६ )
५९. घृतसिक्त अग्नि की तरह दीप्त होना । ( पृ० ४२ ) खाली मुट्ठी से फुसलाना। ( पृ० ७०८)
६०.
६१. मेघ को देखकर आनन्दित होना मोर की तरह । ( पृ० २२३)
६२. कुएँ का मेढ़क होना। ( पृ० ३३०)
६३. कमलवन के विकसित होने से घनपटल में छिपी रश्मियों वाले सूर्य का उदय सूचित हो जाता है। ( पृ० ६३५)
६४. तारिकाओं से घिरी रोहिणी । ( पृ० ३६ )
६५. परकटे पक्षी की भाँति निश्चल । ( पृ० ६४३ )
६६. भोजन के अभाव में उपवास का बहाना क्यों। ( पृ० ७६७)
६७. रस्सी से छूटी इन्द्र पताका के समान । ( पृ० ७८२)
६८. समुद्र से प्रतिहत नदी की भाँति । ( पृ० ८३० ) ६९. संयोग का अवसान वियोग में होता है। ( पृ० ९८३)
७०. पायस में घी की धारायें गिरी हैं। ( पृ० ७८१)
७१. नेऋत्य पवन की भाँति । ( पृ० ६५३)
७२. आरम्भ करते ही लक्ष्मी का नाश हुआ। (मध्यम खंड, पृ० १४९ ) ७३. अधिक की इच्छा करते थोड़े से भी हाथ धो बैठे। (वही)
इस प्रकार धर्मसेनगणि की भाषा अलंकारमयी है। उपमा, उत्प्रेक्षा से युक्त हैं, लम्बे समासों का प्रयोग किया गया है। वर्णन बड़े जीवन्त, रोचक और श्रृंगारिक हैं, संवाद
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