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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६ : २१
न ही दूसरों के दुःख में दुःखी हुआ है उसे अपना दुःख नहीं कहना चाहिए। (पृ० ९७)
२७. श्रेष्ठ पुरुष ही मर्यादा का उल्लंघन करने लगेंगे तो सामान्य पुरुष का क्या कहना। ( पृ० १६० )
२८. ताल वृक्ष की नुकीली पत्ती नष्ट हो जाने पर पूरा पेड़ ही टूट जाता है। (पृ० ८४५ )
२९. अविज्ञात कुल में कन्या देना उचित नहीं। (पृ० ११३७)
३०. काँच के पीछे दौड़ने वाला व्यक्ति यदि आप्तजनों द्वारा सन्दिष्ट रत्न को न लेना चाहे, तो उसे क्या माना जाये। (पृ० ५१५)
३१. कौन ऐसा होगा जो निधि देखकर लेने के निमित्त ज्योतिषी से पूछेगा। (पृ० ६३५)
३२. जो नेत्रवान होकर भी सूर्य के उदय होने पर आँखें बंद किये पड़ा रहता है उसके लिये सूर्योदय निरर्थक है। (पृ० १३)
३३. बाण लक्ष्य के अनुसार चलते हैं। (पृ० ३९) ३४. कोकटुक अन्न का पाक नहीं होता। (पृ० १०६७) ३५. राहु मुख से निकला चन्द्रमा। (पृ० ९८७) ३६. भूख से पीड़ित को धर्म कहाँ। (पृ० १०५१) ३७. मूल के नाश से वृक्ष का भी नाश हो जाता है। (पृ० १०९२)
३८. राजा अप्रसन्न होने पर यम और प्रसन्न होने पर कुबेर के समान होता है। (पृ० ११०३)
३९. स्वामी को भृत्य की पत्नी की भी अभिलाषा नहीं करनी चाहिये। (पृ० ७६०)
४०. साधुओं का स्वभाव नवनीत की तरह मृदुल तथा चन्दन की भाँति शीतल होता है। (पृ० ३९९)
४१. मनोज्ञ सौरभ सम्पदा से भरपूर खिला चन्दन एकान्त वन में रहता है तो उसके लिए क्या भौंरों को कहना पड़ता है। (पृ० ११११)
४२. तेलरहित दीपक के समान। (पृ० ७६) ४३. सूखी घास का गट्ठर लेकर आग के पास जाना। (पृ० ७९) ४४. मुट्ठी में रक्खी हुई चिकनी बालू। (पृ० ७९) ४५. फलहीन वृक्ष को पक्षी भी छोड़ देते हैं। (पृ० ८७) ४६. लक्ष्मी जितनी जल्दी आती है उतनी जल्दी लौट भी जाती है। (पृ० १०५) ४७. प्रभात के सूर्य को सूप से ढका नहीं जा सकता। (पृ० २०४)
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