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सिरि भूवलय
नाम, व्यक्ति नामों के केवल उल्लेख से कोई भी कृति उस समय कालीन है ऐसा मानना मुमकिन नहीं है । कुमदेन्दु के लिए गंगर पहले शिवमार उनकी पत्नी जक्कीलक्की राष्ट्र कूट के दंति दुर्ग, शिष्य थे ऐसा ऐसा मान कर कवि के समय को सन् ६८० तक पीछे धकेलने को यूं ही मान लेने वाला निर्णय नहीं है । वास्तव में इतने पहले के कन्नड साहित्य का कुछ भी स्वरूप ही हमें ज्ञात नहीं
प्रथम परिष्करण कर्त्ता कति के अंक चक्रों को अनिबध्द किए गए रूप में इस कृति की भाषा और छंद उस समय विशेष की तात्कालिक वस्तु विवरण, स्वयं ही अपने समय विशेष के विषय में परोक्ष रूप से साक्षी (गवाही) देती है। कृति की भाषा व्यवहारिक नडुगन्नड(मध्यकालीन कन्नड) है कहना (सु ईसा बाद ११५०१७५०) विदित है। उस समय की सभी भाषिक लक्षण सार्वजनिक रूप से यहाँ गोचर होते हैं। इसी तरह छंद भी अनेक स्तरों पर १५वीं सदी में रूपित हए अनंतर में विशेष रूप से प्रचारित हो सांगत्य होकर उसके छंद के लक्षण आज के समय के ललित सांगत्यकारों में गोचर होने के भाँति है। वस्तु विवरण के संदर्भ में । १. ७१८भाषाओं और ३६३ मतों के अन्वय और विचार सिरि भूवलय में दिखाई
पडते हैं; कहना ही ग्रंथ की आधुनिकता को दर्शाती है । २. संस्कृत, प्राकृत और द्रविड भाषा लिपि के साथ आधुनिक आर्य भाषा जैसे
मराठी, गुजराती, बंगाली, उडिया, बिहारी भाषाओं को भी ९-१० शतकों के बाद विशेषक कर साहित्य संवर्धनों में तमिल, तेलगु, मलयालम भाषाओं को (५-२९-६०) यवन, फारसी, खरोष्ठि, तुर्की देशों की भाषाओं का भी यहाँ
नाम लिया गया है । ३. वीरशैव के उत्तकर्ष काल में तरह-तरह से प्रयुक्त होने वाले मनगाणिसुव गुरु
लिंग (५-१८८) शिवगण (६-५९) ऐसी बातें भी हैं ।। ४. माधवाचार्य के काल में (१२३८-१३१७) अनंतर प्रवर्तित अद्वैत-द्वैत सिध्दांत
भेद भी यहाँ प्रस्तावित है।
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