Book Title: Siri Bhuvalay Part 01
Author(s): Swarna Jyoti
Publisher: Pustak Shakti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 464
________________ सिरि भूवलय पूर्वंतं ह्यपरांतं ध्रुवमध्रुवं च्यवनलब्धिनामानि अध्रुव संपे अणिधिं चाप्यर्थं भौवावयाद्यं च सवार्थकल्पनीयं ज्ञानमतीतं त्वनागतं कालं सिद्धिमुपाद्यं च तथा चतुर्दश वस्तुनि द्वितीयस्य ।। इन्हें उपरोक्त सूची में (४७ - ६०) कुमुदेन्दु ने भी कहा है । वंदित्तु सूत्र को कुमुदेन्दु सूचित करते हैं। (भूवलय, श्रुतावतार पृ. ८२ ) जोणि पाहुड दिगबंरों के लिए प्रमाण नहीं है कहने पर भी कुंदकुंदने ने जोणिसार को लिखा, जान पडता है। कुंदकुंद, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद, समंतभद्र, चूडामणि कर्त्ता तुंबलूराचार्य आदि के ग्रंथों को कुमुदेन्दु उल्लेखित करते हैं। परन्तु आजकल में प्रकटित २० - ३३ अध्यायों में निम्न ग्रंथों से कुछ भाग गोचर होते हैं । १.समंतभद्र-बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २. पात्रकेसरि स्तोत्र, ३. गुणभद्र - उत्तर पुराण, ४. उग्रादित्य कल्याणकारक, ५.जिनसेन - जयधवळटीका, ६ . तिलोयपण्णत्ति, ७. पूज्यपाद - इष्टोपदेश, ८. इंद्रनंदि - समयभूषण, नीतिसार, ९. जिनसेन आदि पुराण, सहस्रनाम स्तोत्र, १०. गंभीरं मधुरं श्लोक (भट्टकलंक के श्ब्दानुशासन में भी उद्धृत), ११. कविजिह्वाबंधन, १२. वड्डाराधना (?), १३. सिरिगोम्मडदेव विरइय कंमंड सक्कद पाहुड गीदा, १४.आदिगिम्मटादेव विरइया अणाइ अणिहणभयवद्गीदादि मंगल पाहुडसुत्तम तरालटिय दव्वप्पमाणाणु योगद्दाद्दारे पढमसुत्तं समत्ता, १५. अथ व्यासर्षि प्रणीत जयाख्यानाद्यंतर श्रेढी ऋ मंत्रांतर्गत गीता, १६. समंतभद्रयतिवर - गन्धहस्तिय महाभाष्य, १७. भगवद्गीता पैशाचीभाष्य, १८. महाबंध इनमें जिनसेन का जयधवळ टीका सन् ८३७ में संपूर्ण हुआ। अनंतर आ की रचना की ऐसी कल्पना की जा सकती है। उत्तरपुराण को गुणभद्र ने सन् ८९८ में बकापुर में पूर्ण किया। समय भूषण अथवा नीतिसार, ज्वालामालिनीकल्प आदि ग्रंथ को इंद्रनंदि ने सन् ९३० में राष्ट्र कूट मुम्मडि कृष्ण के शासन में रचा । इन ग्रंथों से उद्धृत श्लोक भूवलय में समाहित हैं ऐसा मानना होगा । कुमुदेन्दु कहेनुसार त्रिलोक्सार लब्धिसार चारित्रसार सन् ९८० में रहे नेमिचंद्र के ही ग्रंथ हैं ऐसा मानने के लिए पर्याप्त आधार 461

Loading...

Page Navigation
1 ... 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504