Book Title: Siri Bhuvalay Part 01
Author(s): Swarna Jyoti
Publisher: Pustak Shakti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 474
________________ सिरि भूवलय इस सांगत्यपद्य में चक्रं केसर गंधकाद्रक बला कांतारभल्लातकी । शम्याकाम्रुत मोघमुत्पल सुमं कार्पास जीवंतिका ॥ यह संस्कृत श्लोक, अनेक श्लोकों के विवरण के साथ एक बार सिद्ध किए गए औषधि को हजारों लोगों को सालों तक दिया जा सकता है, ऐसा विवरण दिया गया है। सिरि भूवलय में वेदनीय कर्म को दो भेदों में समझाया गया है । सुख ही सातावेदनीय, दुख ही असातावेदनीय । इनकी तीव्रता या मंदता से भी क्षुधा तृषा अनेक पीडाएं उत्पन्न होती है । यह मानव में सदा ही उत्पन्न होता है । परंतु वह वीतरागप्रभु में संपूर्ण न हुआ होता है । इसलिए उसमें अनंत सुख होता है । इसी तरह राग में शुभअशुभ के दो प्रकार होते है । धन, कनक, रत्न, राज्य, स्त्री इत्यादि मानव के लिए शुभ माना जाए तो योगियों के लिए यह अशुभ है ! इस प्रकार रागादि रोगों का नाश कर आत्म के नित्यपद, मोक्ष को प्राप्त कराना ही आयुर्वेद का उद्देश्य है । जातस्य मरणं ध्रुवं त्रिकालाबाधित नित्यसत्य कहावत को, व्यवहारनय प्रधान इस सिद्धांत को सिरिभूवलय का आयुर्वेद कहता है- यह गलत है ऐसा भगवंत के भगवद्गीता में कहा है । जन्म लेने वाला न मरे, मरना भी नहीं है, ऐसा सिरिभूवलय के आयुर्वेद सिद्धांत कहता है । वाग्भटाचार्य-रागादि रोगान सततानुशक्तान इस पद्य में राग ही रोग का जड है ऐसा कह उस पर जय प्राप्त करनेवाला ही भवरोगवैद्य परमात्म है, ऐसा कहा है । सिद्धांत रसायन से जर, मरण, रुज का नाश होता है । इसलिए जीव नित्य सुखः से सदाकाल जीवित रहता है । ज्ञानवरणीययादि अष्ट कर्मों से संसारी जीवन को बांधने की भाँति पादरससिद्धि को अष्टविधकीटादि कर्मों से बांधाना चाहिए । इस संसार में भगवान को हमने नहीं देखा है । परंतु युक्ति से उसे देख सकते है । उसी प्रकार पादरस (पारा) को बांध कर सिद्ध कर उसमें सकल गुण को देखने के लिए दोषविमुक्त होकर शुद्धजीवन जैसे सिद्ध रस होना चाहिए । मुक्तात्मों को सिद्ध कहने की भाँति सिद्धरस को भी दोष से मुक्त होना है । 471

Loading...

Page Navigation
1 ... 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504