Book Title: Siri Bhuvalay Part 01
Author(s): Swarna Jyoti
Publisher: Pustak Shakti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 504
________________ ग्रंथ संशोधक पंडित यल्लप्पा शास्त्री ग्रंथ संपादक श्री. कर्लमंगलं श्रीकंठय्या ग्रंथ प्रचारक कुमुदेंन्टु विरचित सिरी भूवलय कनड साहित्य का एक अपूर्व ग्रंथ है। मुनि वीर सेनाचार्य संत-प्राकृत भाषा मिश्रित सिद्धांत ग्रंथ षड्खंडागमधवला टीका सन्816 के आधार पर रचित अनन्य (एकमात्र) ग्रंथ है। अक्षर निष्ट पदपुंजो का प्रयोग किये बिना संख्या लिपि को अर्थात् केवल अंको का प्रयोग कर तैयार किया गया चमत्कारिक ग्रंथ है। पद्पुंजो में पहले साहित्य की रचना कर विशेष प्रक्रिया से अंक श्रेणियों में परिवर्तित किया गया लगता है, गणित शास्र के विविध गतियो का संयोगवाद ही ग्रंथ के प्राण है। यह64 अक्षरोऔर अंककेसहयोगसे निर्मित किया गया साहित्यसाम्रज्य है। सिरी भूवलय में संस्कृत-प्राकृत-कन्नड भाषा साहित्य के लिये उपयुक्त 64 मूल वर्णो के प्रतिरूप के लिये 64 अंको की योजना है। इन अंको को चौको खानों में अर्थात् (27x27x329 वर्ग) श्रेणियों के रूप में भरा गया है। इस तरह 1230 चक्रहम तक संरक्षित होकर आये हैं। इस पुस्तक के पन्नों चौको के अंदर अंको को,श्रेणियों को, पपुंज के रूप में परिवर्तित कर पढा ज य तो रथ का सहज रूप मध्य कन्नड भाषा के साहित्य छंदो के पद्य,अन्य विविध छंद पंक्तियाँ प्रकट होती हैं। इसी तरह निर्दिष्ट स्थान के अक्षरों को क्रमबद्ध रूप से पढा जाय तो प्राकृत, संस्कृतादि भाषा साहित्य का भी आविर्भाव होता है। प्रत्येक अध्याय के लिये एक-एक चक्र योजना के तहत नये-नये साहित्य के उद्भव का अवसर मिलता है। इतना ही नहीं 18 महाभाषाओं के साथ साथ 300 सामान्य भाषाओं में भी सहज गद्य साहित्य है इसे ग्रन्थ कर्ता ही बताते हैं। इस विश्वकोश सम 56 अध्यायों के अंक लिपि वाक्यों मे विविध विषयों का समावेश है।आर्षेय साहित्यरचना, भौतिक रसायनादि, मूल विज्ञान, रसवाद, ज्योतिष्य, इतिहास-संस्कृति, धर्म-दर्शन, लौहखगोल जलविज्ञान,अणुपरमाणु विज्ञान, वैद्य-गणित,शास्त्र-संप्रदाय,लिपि-भाषा,भाषा-बंध, चित्र आदि, इसतरह यहाँ विषय व्याप्ति बहुमुखी है। कर्ता ही स्वयंअपनी कृतिको चक्रबंध के बंधन में बाँधा गया विश्व काव्य कहते है। यह एक ज्ञान विज्ञानकोश है। सिरी भूवलय के अध्ययन का संशोधन व प्रसार 20 वी सदी के पूर्व भाग में प्रारंभ होकर निरंतर रूप से देशव्यापी तौर पर हो रहा है। इस दिशा में पंडित यल्लप्पा शास्त्री, कर्लमंगलं श्रीकंठय्या, के अनंत सब्बाराव प्रथम प्रवर्तक है। उनक पांडित्य परिश्रम उल्लेखनीय है। फिर भी ग्रंथ का स्वरूप, विषय व्याप्ति, वस्तु विवरण भाषा वैलक्षण आदिअनेक स्तरो पर अज्ञात और अस्पष्ट ही है।आधुनिक अविष्कार गणक यंत्र की सहायता से वाचनऔर वाक्य संयोजन में सहायता मिलने की संभावना है। इस रीति से इस ग्रंथ के अध्ययनवसंशोधन,भाषा पंडितों के द्वारा विशेष रूपसे गणितज्ञो से, वैज्ञानिकरूपसे आगे बढे तो सही और उचित फल की आशा की जा सकती है। ऐसा फल, तब कत्रड प्रदेश के विद्वानों की बुद्धिमता को,लोकोपकारक ज्ञान के वैभवको, प्रकट करने में समर्थ होगा। _ग्रंथ कर्ता कुमुदेन्दु के बारे में विवरण स्पष्ट नहीं है। कुछ ऐतिहासिक साक्ष्याधारों को विश्लेषित करने की रीति से ग्रंथ लगभग आठवीं सदी में रचित जान पडता है। लेकिन भाषा शैली छंदादिलगभग सन् बाद 1150-1350 की अवधि के बोलचाल की मध्य कन्नडलगती है। कर्ता की हस्ताक्षर प्रति आज तक उपलब्ध नहीं है। अनिर्दिष्ट काल के कागज की प्रति में उपलब्ध अंक लिपि के चौकोर बंधो से अक्षरस्थ साहित्यको बाहर लाया गया है। नीलांबर दोळु होळेयुवा नक्षत्र / मालिन्यवागदवरेगे। शील वुतांग कोळु बान्दु जनरेल्ला / कालन जयीसलेलिसली अर्थात् आकाश में चमकने वाले नक्षत्रों के धुमिल होने तक सभी सद्पुरुषों के सत्कार्यों के द्वारा निरंतर प्रयत्न केजारीरहे। टी.वी. वेंकटाचल शास्त्री ISBN 978-81-903572-4-1. श्री. के. अनंत सुब्बाराव ग्रंथ प्रति संरक्षक श्री. एम.वाय. धर्मपाल पुस्तक 97881903572414 Siri Bhoovalaya Hin. Vol (9)

Loading...

Page Navigation
1 ... 502 503 504