Book Title: Siri Bhuvalay Part 01
Author(s): Swarna Jyoti
Publisher: Pustak Shakti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 447
________________ सिरि भूवलय डॉ. एस. श्रीकंठशास्त्री जी कुमुदेन्दु कवि का भूवलय; अभिवंदना (ए. आर. कृ. संभावना ग्रंथ प्रकटन समीति, मैसूर १९५६, पृ ५६२-८९ ) सिरिभूवलय नामांकित कुमुदेन्दु कवि के अद्भुत ग्रंथ को संपादक कर्लमंगलं श्री कंठैया जी तथा पंडित यल्लप्पा शास्त्री जी ने अत्यधिक प्रयास से प्रकाश में लाए हैं (सिरि भूवलय, सर्वार्थ सिद्धि संघ, बंगलूर, भाग १ - १९५३; २ - १९५५) इस महा ग्रंथ के प्रथम भाग के श्रीकंठाशास्त्री जी के द्वारा लिखे गए प्रस्तावना में उन्होंनें भरसक अनेक समस्याओं के समाधान को देकर इस ग्रंथ के विश्व महत्त्व को भी सूचित किया है। केवल भाषा की दृष्टि से ही यह ग्रंथ आधुनिक है यदि ऐसा निर्णय लिया जाए तो उत्पन्न अनेक समस्याओं के लिए सदुउत्तर देना दुष्कर होने के कारण भी इस ग्रंथ के अध्ययन करने में कन्नड भाषा शास्त्र ही नहीं जैन सिध्दांत, ज्योतिष्य, आयुर्वेद, रसायन शास्त्र, जैन गणित पद्धति, पुरातत्व शोध, कर्नाटक का चरीत्रे (इतिहास), अनेक भाषाओं में पांडित्य, ऋगवेद, रामायण, महाभारत इत्यादि का संपूर्ण ज्ञान अत्यावश्यक है। ऐसा पांडित्य ने होने पर इस ग्रंथ का विमर्शन करना केवल कुतूहल जनक, मनोरंजन के लिए चक्रबंध स्पर्धा के लिए रचित ग्रंथ है ऐसा निर्णय लें तो महा अपचार करने की भाँति होगा । भारतीय संस्कृति के लिए ही नहीं वरन विश्व संस्कृति के लिए भी यह ग्रंथ परमोपकारी ही ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अभी प्रकाशित भूवलय के प्रथम और द्वितीय संस्करणों के कुछ अंशों का यहाँ चर्चा की गई है। ग्रंथ रचना काल के विषय में कुमुदेन्दु स्वयं अपने विषय में कहने के कारण संपादक की सूचनानुसार कवि वीरसेन, जिनसेन, अमोघ वर्ष, शिवमारगंग के समय के रहें होंगें। वीरसेन तथा जिनसेन की टीकाओं का भी उल्लेख किया है । वीरसेन ने अपने धवळटीका ग्रंथ के उपोद्घात ( प्रारंभ ) में महावीर तीर्थंकर के समय से अविच्छिन रूप से चले आ रहे आगम परंपरा का भी उल्लेख किया है। महावीर जी के उपदेशों को इंद्रभूति गौतम के बारह अंगों के रूप में विभक्त किया है । माघनंदी के श्रावकचार में गौतम के अनंतर (बाद) २८ आचार्य वीरनिर्वाण शक ६८३तक के आगमों को रक्षित करते आए । ऐकांगधरों में अंतिम लोहाचार्य के समय में केवल एक ही अंग शेष रहा, कहा गया है। उसके कुछ समय के पश्चात गुणधर के समकालीन धरसेन ने कुछ भागों को मात्र सीख कर अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि को उपदेशित करने के लिए उन्होंनें 444

Loading...

Page Navigation
1 ... 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504