Book Title: Siri Bhuvalay Part 01
Author(s): Swarna Jyoti
Publisher: Pustak Shakti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 315
________________ जिनवर्धमान धर्मान्क घननाळे इन्दु निन्नेगळ मनुजरिग् औम्दे सद्धरम अनुजरागिसुव सन्मन्तर तनयर सलहुव मन्तर सिरि भूवलय ।।१२२।। मनुजरेल्ल्गिोम्दे धर्म ।। १२५ ।। कोनेयादियन्क मूरारु ॥१२८॥ मनुजरिगोम्दे सूत्रान्क घन विरारूप सूत्रान्क घनबन्ध पुण्य सबन्ध घनसत्य भद्र भूवलय ।।१३१।। ।।१३४।। ॥१२३॥ तनुविनोळात्म सद्धर्म जिनधर्मदय्क्य सिद्धान्त ॥ १२६॥ ।। १२९ ।। ।। १३२ ।। ॥१३५॥ ।।१३७ ।। परिशुद्ध व्रतगळम् अणु महान् एन्नुव । हनुमन्त जिनव* ररन्क । मुनिसुव्रतर कालदे बन्द रामान्क | जिनधर्म वर्धमानान्क रिद्धियोल् श्री वालि मुनिगळ गिरियन्क । शुद्ध सम्यक्त्व ल क्षणद ।। बुद्धिर्धियोळगण यशद समन्वय । शुद्ध रामायणदन्क कविगे वाल्मिकिय रसदूट उणिसुव । सविये महाव्रतदन्‌क ।। य* वेय मुच्चुव कालदलि बहदोषव । नवशुद्धिगोळिप दिव्यान्क हिरिय दोषगळिगे अणु व्रतगळनित्तु । हिरियगे महाव्रत सिद्धि | धरेगे मन्गलदप्राभ्रुतद दर्शनदित्तु । परिशुद्धवागिसिदन्क यशस्वति देविय बसिरिन्द बन्दन्क । वशद ब्रम्हान्ड द् अक्षरद ।। रसवनन्गय्य मूलदलि सुरिसिदन्‌क । विषहर नीलकन्ठान्क मनुमथ दोर्बलियादिय तन्गिगे । घनद् नवमान्क दर्शनधा * ।। अनुभववन्नित्तु जिनरादि औम्बत्त । तनुजर्गे शून्यदोळ् तोरि जिनधर्मद ओम्बत्तम् सारि ॥१४४॥ जिनस्मार्त विष्णुगळन्क कोनेयलि 'सोन्ने' यागिसुत ॥ १४७ ॥ तनुदोष औम्दे एन्देनुत कोनेगे दुर्नयगळ केडिसि ॥ १५० ॥ सुनयद अतिशयवेरसि चिनुमयत्वव तनगिरिसि || १५३ || दनुजर हिम्सेयम् बिडि 312 शणसदे बाळ्व (सूत्रान्क) समयक्त्व जिन विष्णु शिवदिव्य ब्रम्ह विनय सद्धर्मद् अहिम्से ॥१४५॥ ।। १४८ ।। ॥ १५१ ॥ तनुविनोळात्मन तोरि सुन्य दुर्नयगळ तोरि कोनेगे अनेकान्तवेरसि ॥ १५४ ॥ जिनमोर्गे सुन्दरवेनिसि विनय धर्मान्क भूवलय तेरस गुणस्तथानद्तके बरुवाग । दारि समयक्त्ववेन्दे न्* ब ।। सार श्री जिन वाणियनुभव बन्दाग । नूरू सागर कर्म केडुगु णवपददादिय अरहन्त औदुम् । अवेरडरलि सिद्धम् त ।। नवदादि मूरनक आचार्य नाल्कर । विवर उपाद्याय ऐदु दुरितद दहनवे साधु समाधिय । सरुव साधुत्व आररलि || बरे ना* ळे सद्धर्म एाळनक आगम || परिशुद्ध जिनबिम्ब एन्टु कविद गोपुर द्वार शिखर मानस्तम्भ । दवनिय बिम्बालय म* ।। नवमवेन्देनुवरु आगम परिभाषे । विवरवे नव पददम्क हिरियाशे यिदरलि बयकेयद्वय्तव । वरमुदके द्वय्तधेनु ॥ सरियवरिगे मुक्तियुभयमुक्तिय लाभ । गुरु पदसिद्धि ईर्वरिगे ॥१४६॥ ।। १४९ ।। ।।१५२।। ॥१५५॥ ॥१५६॥ ।। १२४ ।। ॥१२७॥ ॥१३०॥ ।।१३३ ॥ ।। १३६ ।। ।। १३८ ॥ ।।१३९ ॥ ।।१४० ।। ।। १४१ ।। ।। १४२ ।। ।। १४३ ॥ ॥१५७॥ ।।१५८ ॥ ।। १५९ ।। ॥ १६० ॥ ॥१६१ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504