Book Title: Siddhachal Tirth ke 21 Kshamashraman Author(s): Vallabhvijay Publisher: Atmanand Jain Sabha View full book textPage 6
________________ ( ४ ) अन्यलोक विषधर समा, दुखिया भूतल मान । द्रव्यलिंगी कणक्षेत्र सम, मुनिवर सीप समान ॥ १६ ॥ श्रावक मेघ समा सही, करत पुण्यका काम | पुण्यराशि वाधे घनी, पुण्यराशि तिणनाम ॥ १७ ॥ " सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभार मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ||" इच्छामि खमासमणो० ॥ ७ ॥ (=) संयमधर मुनिवर घना, तप तपता इक ध्यान । कर्म वियोगे पामिया, केवल लक्ष्मी निधान ॥ १८ ॥ लाख इकानवे शिवहुये, नारद सह अनगार । नाम नमो तिण आठवां, श्रीपदगिरि निरधार ॥ १६ ॥ "सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं बार हजार ।।" इच्छामि खमासमणेो० ॥ ८ ॥ (ε) श्री सीमंधर स्वामिने, गिरिमहिमा सुविलास । सुरपति पुर वर्णन किया, तिरा है इंद्र प्रकास ॥ २० ॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमकार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ।" इच्छामि खमासमणो० ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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