Book Title: Siddhachal Tirth ke 21 Kshamashraman
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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दासकी अरजी चित्त में दृढ गहिये || ऋ० ॥ ७॥ दीन हान पर गुणरस राची, सरण रहित जगमें रहिये ।
तूं करुणासिंधु,
दासकी करुणा क्यों नहीं चित्त गहिये ।। ऋ० ||८||
तुम बिन तारक कोई न दीसे,
होवे तो तुमको क्यों कहिये ।
यह दिल में ठानी,
तारके सेवक जगमें जस लहिये || ऋ० ॥ ६॥ सातवार तुम चरणे आयो,
दायक शरण जगत कहिये । धरने बेसी,
नाथ से मनवंछित सबकुछ लहिये ।। ऋ० ।। १० ॥ गुणी मानी परिहरसो तो,
दिगुणी जग को कहिये ।
जो गुणीजन तारे,
तो तेरी अधिकता क्या कहिये || ऋ० ॥ ११ ॥ तम घटमें खोज पियारे,
बाह्य भटकते ना रहिये ।
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