Book Title: Siddhachal Tirth ke 21 Kshamashraman
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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अव्यय विभु ईश जगरंजन, रूप रेख विन तूं कहिये। शिव अचर अनंगी, तारके जगजन निजसत्ता लहिये ।। ऋ० ॥३॥ शत सुत माता सुता मुहंकर, जगत जयंकर तूं कहिये । निजजन सब तारे, हमोंसे अंतर रखना ना चाहिये ।। ऋ० ॥४॥ मुखड़ा भीचक बेसी रहना, दीनदयाल को ना चाहिये। हम तनमन ठारो, वचनसे सेवक अपना कहदइये ।। ऋ० ॥५॥ त्रिभुवनईश सुहंकर स्वामी, अंतरयामी तू कहिये। जब हमको तारो, प्रभुसे मनकी बात सकल कहिये । ऋ०॥६॥ कल्पतरु चिंतामणि जाच्यो, आज निरासे ना रहिये। तूं चिंतत दायक, wale sporon
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