Book Title: Siddhachal Tirth ke 21 Kshamashraman
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ * __ वन्दे श्रीवीरमानन्दम् । श्री सिद्धाचलतीर्थ के २१ क्षमाश्रमण हिन्दी. योजकन्यायांभोनिधि जैनाचार्य १०८ श्रीमद्विजयानन्दसूरिप्रसिद्धनाम-आत्मारामजी महाराजके शिष्य १०८ श्रीमुनिमहाराज श्रीलक्ष्मी विजयजी के शिष्यमुनि महाराज श्री हर्ष विजयजी के शिष्य . मुनि श्री वल्लभविजयजी महाराज. प्रकाशकः श्रीवात्मानन्द जैनसभा लाहौर (पंजाब श्रीवीरसंवत् २४५१. ) प्रति १००० (विक्रम संवत् १९८१, २ श्रीवात्मसंवत् २६. मूल्य सदुपयोग । ई. सन १६२४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मैनेजर अमरनाथ "रौसमक" के प्रबंध से मुम्बई संस्कृत प्रेस लाहौर, में छपा. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दे श्रीवीरमानन्दम्. "श्रीसिद्धगिरितीर्थके२१ क्षमाश्रमण" सिद्धाचल सिमरु सदा, सोरठ देश मझार । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदू वार हजार ॥१॥ अंग वसन मन भूमिका, पूजोपकरण सार । न्यायद्रव्य विधि शुद्धता, शुद्धि सात प्रकार ॥ २ ॥ कार्तिक सुदि पूनम दिने, दशकोटी परिवार । . द्राविड वारिखिल्लजी, सिद्ध हुये निरधार ॥३॥ तिसकारण कार्तिक दिने, संघ सकल परिवार । आदिनाथ सन्मुख रही, चमाश्रमण अधिकार ।। ४ ॥ वर्णन इकवीस नामसु, नाम प्रथम अभिराम । सर्बुजय शुकरायसे, सिमरो शिवसुख धाम ।। ५ ॥ "सिद्धाचल सिमरूं सदा, सोरठ देश मझार । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदू वार हजार ।।" इच्छामि खमासमणो० ॥१॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) ( २ ) समवसरे सिद्धाचले, पुंडरीक गणधार । लाख सवा महातम किया, सुरनर सभा मकार ॥ ६ ॥ चैत्री पूनमके दिने, कर अनशन इकमास । पांचकोड़ मुनिसे कियो, मुक्ति निलयमें वास ॥ ७ ॥ तिसकारण पुंडरिकगिरि, नाम हुआ विख्यात | मनवचकाया वंदिये, ऊठी नित परभात ॥ ८ ॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देश मकार । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ||" इच्छामि खमासमणो० ॥ २ ॥ ( ३ ) पांडव कोड़ी वीससे, मोच गये इसठाम । सिद्ध अनंते इह हुए, सिद्धक्षेत्र तिय नाम ॥ ६ ॥ "सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देश मकार | मनुज जन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥ ३ ॥ ( ४ ) सठ तीरथ न्हायके, अंगरंग घड़ीएक । तुंबजिल के स्नानसे, प्रगट्यो चित्त विवेक ।। १० ॥ चंद्रसेखर आदि कई, कर्ममैल नृप धोय । Jain विमल हुए अचलोपरि, विमलाचल तिथ जोय ॥। ११ ॥ || || Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सिद्धाचल सिमरु सदा, सोरठ देश मझार । । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदू वार हजार ॥" __ इच्छामि खमासमणो०॥४॥ पर्वतमें सुरगिरि बड़ा, जिन अभिषेक कराय । सिद्ध हुए स्नातक यहां, सुरगिरि नाम धराय ॥ १२ ॥ अथवा चउदस क्षेत्रमें इससम तीर्थ न एक । तिण सुरगिरि नामे नमुं, जिहां सुरवास अनेक ॥ १३॥ "सिद्धाचल सिमरूं सदा, सोरठ देश मझार । मनुज जन्म शुभ पायके, बंदू वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥ ५॥ अस्सी योजन पृथुल है, ऊंचपने छब्बीस । महिमामें म्होटा गिरि, महागिरि नाम नमीस ॥ १४ ॥ "सिद्धाचल सिमरु सदा, सोरठ देश मझार । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदू वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो०॥६॥ (७) गणधर गुणवंता मुनि, विश्वमांहि वंदनिक । जैसा वैसा संयमी, विमलाचल पूजनिक ॥ १५ ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) अन्यलोक विषधर समा, दुखिया भूतल मान । द्रव्यलिंगी कणक्षेत्र सम, मुनिवर सीप समान ॥ १६ ॥ श्रावक मेघ समा सही, करत पुण्यका काम | पुण्यराशि वाधे घनी, पुण्यराशि तिणनाम ॥ १७ ॥ " सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभार मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ||" इच्छामि खमासमणो० ॥ ७ ॥ (=) संयमधर मुनिवर घना, तप तपता इक ध्यान । कर्म वियोगे पामिया, केवल लक्ष्मी निधान ॥ १८ ॥ लाख इकानवे शिवहुये, नारद सह अनगार । नाम नमो तिण आठवां, श्रीपदगिरि निरधार ॥ १६ ॥ "सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं बार हजार ।।" इच्छामि खमासमणेो० ॥ ८ ॥ (ε) श्री सीमंधर स्वामिने, गिरिमहिमा सुविलास । सुरपति पुर वर्णन किया, तिरा है इंद्र प्रकास ॥ २० ॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमकार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ।" इच्छामि खमासमणो० ॥ ६ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) दशकोटी अणुव्रत धरा, भक्ति जिमावें सार । जैन तीर्थ यात्रा करे, नहीं लाभका पार ॥ २१ ॥ तिससे भी सिद्धाचले, एकमुनि दिये दान | लाभ अधिका जानियें, महातीर्थ अभिधान ॥ २२॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमकार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥ १० ॥ ( ११ ) प्राये यह गिरि शाश्वता, रहगा काल अनंत । शत्रुंजय महातम सुनी, नमो शाश्वत गिरि संत ॥ २३ ॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ॥" इच्छ मि खमासमणेो० ॥ ११ ॥ ( १२ ) नारी बालक मुनि चउ हत्या करनार । यात्रा शुभभावें करे, पापपुंज दे जार ।। २४ ।। जे परदारा लंपटी, चोरी के करनार । देव द्रव्य भक्षण करे, धर्म द्रव्य हरनार || २५ || चैत्री कार्त्तिकी पूनमे, करे यात्रा इस धाम । तप तपते पातिक टरे, तिथ दृढ शक्ति नाम ॥ २६ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) “ सिद्धाचल, सिमरुं सदा, सोरठ देश मकार | मनुज जन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ।। " इच्छामि खमासमणो० ॥ १२ ॥ ( १३ ) थावच्चा सुत जानिये, अनशन कर अनगार | मुक्ति गये सह सहससे, मुक्ति निलय गिरि धार ॥ २७ ॥ " सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभ्कार । । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदूं बार हजार ॥ " इच्छामि खमासमणो० ॥ १३ ॥ ( १४ ) चंद्र सूर्य दोनों सही, दीखत हैं गिरि शृंग । इस कारण अभिधा कही, पुष्पदंत गिरि रंग ॥ २८ ॥ " सिद्धाचल सिमरु सदा, सोरठ देशमभार । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार | " इच्छामि खमासमणो० ॥ १४ ॥ ( १५ ) कर्म की च भवजल तजी, पाया भवि शिवसद्म । प्राणी पद्म निरंजनो, वंदो गिरि महापद्म ॥ २६ ॥ || " सिद्धाचल सिमहं सदा, सोरेठ देशमकार । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ॥ " इच्छामि खमासमण ० ॥ १५ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) शिव वधु विवाह उत्सवे, मंडप रचना सार । मुनिवर वर बैठक सही, पृथ्विपीठ मनोहार ॥ ३० ॥ "सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमझार । मनुज जन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥१६॥ श्रीसुभद्र गिरि को नमो, भद्र है मंगल रूप । जल तरु रज गिरिराज की, सीस चढ़ावत भूप ॥ ३१ ॥ "सिद्धाचल सिमरु सदा, सोरठ देशमभार। मनुज जन्म शुभ पायके, वंदू वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥१७॥ (१८) विद्याधर सुर अप्सरा, शत्रुजी नदी वास । करता हरता पापको, भजिये भवि कैलास ॥ ३२ ॥ "सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमझार । मनुज जन्म शुभ पायके, बंदू वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥१८॥ निरवाणी प्रभु दूसरे, गत चौवीसी मझार। Jain तस गणधर मुनिमें बड़े, नाम कदंच नगार ॥ ३३ ॥g Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभुवचने अनशन करी, कियो मुक्तिमें वास । कदंब गिरि नामे नमो, होवे लीलविलास ॥ ३४ ॥ "सिद्धाचल सिमरु सदा, सोरठ देशमझार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदू वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥ १६ ॥ (२०) पाताले जस मूल है, उज्वल गिरिका सार । त्रिकरण योगे वंदिये, अल्प होय संसार ॥ ३५॥ "सिद्धाचल सिमरूं सदा, सोरठ देशमझार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदू वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥२०॥ (२१) तन मन धन सुत वल्लभा, स्वर्गादिक सुखभोग । जो वांछे सो संपजे, शिवरमणी संयोग ॥ ३६ ॥ विमलाचल परमेष्ठिका, ध्यान धरे छै मास । तेज अपूरव विस्तरे, सफल होय सब आस ।। ३७॥ सिद्धि लहे भव तीसरे, ये हैं प्रायिक वाच । उत्कृष्टे परिणाम से, अंतर महुरत साच ॥३८॥ सर्वकाम दायक नमो, कीनी नाम पिछान | ane Jain Edue TON Ternana ww.jainelibrary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( स ) श्री शुभ वीर विजय प्रभु, नमिये हो कल्यान ॥ ३६ ॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ।। " इच्छामि खमासमणो० ॥ २१ ॥ इति " श्रीशत्रुंजयतीर्थ स्तोत्रम् " पूर्णानन्दमयं महोदयमयं कैवल्यचिदङमय, रूपातीतमयं स्वरूप रमणं स्वाभाविकी श्रीमयम् | ज्ञानोद्योतमयं कृपारसमयं स्याद्वाद विद्यालयं, श्रीसिद्धाचलतीर्थराजमनिशं वन्देहमादीश्वरम् || १ || श्रीमद्युगादीश्वरमात्मरूपं, योगीन्द्रगम्यं विमलाद्रिसंस्थम् । सद्ज्ञानसददृष्टिसुदृष्टलोकं, श्री नाभिसूनुं प्रणमामि नित्यम् ॥ २ ॥ राजादनाधस्तनभूमिभागे, युगादिदेवांघ्रिसरोजपीठम् । देवेन्द्रवन्द्यं सुरराजपूज्यं, सिद्धाचलाग्रस्थितमर्चयामि ॥ ३ ॥ Jain Education international Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '। १० । आदिप्रभोदक्षिणदिगविभागे, सहस्रकूट जिनराजमूर्तीः। सौम्याकृतीः सिद्धततीनिभाश्च, शत्रुजयस्थाः परिपूजयामि ।।४।। श्रादेप्रभोर्वक्त्रसरोरुहाच, विनिर्गतां श्रीत्रिपदीमवाप्य । यो द्वादशाङ्गीं विदधे गणेशः, स पुण्डरीको जयताच्छिवाद्री ।। ५ । चउद्दसगाणं सयसंखगाणं, बावरणसहियाण गणाहिवाणं । सुपाउआ जत्थ विराजमाणा, सत्तुंजयं तं पणमामि णिचं ॥६॥ चत्तहकम्मा परिणामरम्मा, लद्धप्पधम्मा सुगुणहिं पुरणा । चत्तारि अहा दस दुरिण देवा, अट्टावए ताई जिणाई वंदे ॥ ७॥ अणतणाणीण अणंतदसिणो, अणंतसुक्खाण अणंतवीरिणो । वीसं जिणा जत्थ सिवं पवएणा, सम्मेअसेल तमहं थुणामि ॥ ८ ॥.. 23onaru " Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जत्थेव सिद्धो पढमो मुणिदो, गणाहियो पुंडरिश्रो विसिहो । अणेगसाहूपरिवारसंजुओ, तं पुंडरीयाचलमञ्चयामि ॥ ६ ॥ विमलगिरिवतंसः सिद्धिगंगाम्बुवंशः, सकलसुखविधाता दशेनज्ञानदाता । प्रणतसुरनरेन्द्रः केवलज्ञानचन्द्रः, स्रजतु मुदमुदारां नाभिजन्मा जिनेन्द्रः ॥१०॥ आदिजिन वन्दे गुणसदनं, सदनन्तामलबोधम् । बोधकता गुणविस्तृतकीर्ति, कीर्तितपथमविरोधम् ।।आ.॥ रोधरहितविस्फुरदुपयोगं, योगं दधतमभङ्गम् । भङ्गनयत्रजपेशलवाचं, वाचंयमसुखसङ्गम् ।।आ. २॥ सङ्गतपदशुचिवचनतरङ्गं, रङ्गं जगति ददानम् । दानसुरद्रुममञ्जुलहृदयं, हृदयङ्गमगुणभानम् ।।आ.३॥ भानन्दितसुरवरपुन्नागं, नागरमानसहंसम् । हंसगतिपञ्चमगतिवासं, वासवविहिताशंसम् ॥प्रा. ४॥ शंसन्तै नयवचनमनवमं, नवमङ्गलदातारम् । तारस्वरमघघनपवमानं, मानसुभटजेतारम् ॥प्रा.शा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ९९) इत्थं स्तुतः प्रथमतीर्थपतिः प्रमोदात्, श्रीमद्यशोविजयवाचकपुङ्गवेन । श्री पुण्डरीकगिरिराजविराजमानो, मानोन्मुखानि वितनोतु सतां सुखानि ॥ श्रा. ६ ॥ इति श्रीमहामहोपाध्याय श्री मद्यशोविजयगणिनिर्मित श्रीश्रदिनाथस्तवनम् । श्रीसिद्धा चलतीर्थचैत्यवंदन. ( १ ) विमल गिरिवर सयल अघहर भविकजन मनरंजना, निजरूपधारी पापटारी आदिजिन मदभंजनो । जगजीव तारे भरमफारे सवल अरिदलगंजनो, पुंडरीक गिरिवर शृंग शोभे आदिनाथ निरंजनो ॥ १ ॥ अज अमर अचर आनंदरूपी जन्म मरण विहंडनो, सुर असुर गावे भक्तिभावे विमलगिरि जग मंडनो । पुंडरीक गणपति राम पांडव आदि ले बहु मुनिवरा, जिहां मुक्तिरामा वर्या रंगे कर्म कंटक सहु जरा ॥ २ ॥ कोइ तीर्थ जगमें अन्य नाही विमलगिरि सम तारकं, जे दूरभावया जे अभविया सदा दृष्टि निवारकं । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { १२ / एक तीजे पांचमे भव वरे शिव सुखकारक, यह आस धारी सरण थारी आतमा दुःखवारकं ॥ ३ ॥ ( २ ) विमल केवल ज्ञानकमला कलित त्रिभुवनहितकरं । सुरराजसंस्तुत चरणपंकज नमो आदिजिनेश्वरं ॥ १ ॥ विमलगिरिवर शृंगमंडन प्रवरगुणगण भूधरं । सुरसुरकिन्नरकोटिसेवित नमो आदिजिनेश्वरं ॥ २ ॥ करती नाटक किन्नरीगण गाय जिनगुण मनहरं । निर्जरावलि नमे अहनिश नमो आदिजिनेश्वरं ॥ ३ ॥ पुंडरीक गणपति सिद्धि साधी कोटिपण मुनि मनहरं । श्री विमलगिरिवर शृंग सीधा नमो आदिजिनेश्वरं ॥ ४ ॥ निजसाध्यसाधन सुरमुनिवर कोट्यनत ए गिरिवरं । मुक्तिरमणी वर्या रंगे नमो आदिजिनेश्वरं ॥ ५ ॥ पाताल नर सुर लोकमांही विमलगिरिवरतो परं । नहीं अधिक तीरथ तीर्थपति कहे नमो आदिजिनेश्वरं ॥ ६ ॥ इम विमलगिरिवर शिखरमंडन दुग्खविहंडन ध्याइये । निजशुद्धसत्ता साधनार्थं परमज्योति निपाइये । जितमोहकोह विछोह निद्रा परमपदस्थित जयकरं । गिरिराजसेवा करणतत्पर पद्मविजय सुहितकरं ॥ ७ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) श्रीसिद्धाचल तीर्थस्तवन. ( १ ) हम क्यों छोड़ चले वन माधो-चाल । तो पार भये हम साधो, श्रीसिद्धाचल दरस करीरे | अवतो० अंचली ॥ दश्विर जिन मेहर करीब, पाप पटल सब दूर भयोरे । तनमनपावन भविजनकेरो, निरखी जिनंदचंद सुख थयोरे ॥ श्र० १ ॥ पुंडरिक पमुहा मुनि बहु सिद्धा, सिद्धक्षेत्र हम जाचलह्योरे । पशु पंखी जिहां छिनकमें तरिया, तो हम दृढ विस्वास गोरे ॥ ०२ ॥ जिन गणधर अधिमुनि नाहीं, किस गेहूं पुकार करूंरे । जिम तिम कर विमलाचल भेट्यो, भवसागर से नाहीं डरूंरे ॥ श्र०३ ॥ दूरदेशांतर में हम ऊपने, Jain Educ कुगुरु कृपथका जाल पयार lal Use Only । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिन आगम हम मन मान्यो, तबही कुपंथको जाल जोरे । अ०४॥ तो तुम शरण विचारी आयो, दीन अनाथको शरण दियोरे । जयो विमलाचल पूरण स्वामी, जनम जनमको पाप गयोरे ।। अ० ५।। दूरभवी अभव्य न देखे, सरिधनेसर एम कटोरे। विमलाचल फरसे जो प्राणी, मोक्ष महल तिण वेग लह्योरे। .. जयो जगदीसर तू परमेसर, पूर्व ननानवे वार थयोरे। समवसरण रायणतले तेरो, निरखी अघ मम दूर गयोरे ।। अ०७ ॥ श्रीविमलाचल मुझ मन वसीयो, मानुं संसारनो अंत थयोरे। यात्रा करी मन तोष भयो अब, जनम मरण दुःख दूर गयोरे । अ०८ निर्मल मुनिजन जो हैं तार्या, तेतो प्रसिद्ध सिद्धांत कह्योरे। vate & Personal use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझ सरीखा निंदक जो तारो, तारक धिरुद ए साच लह्योरे।। अ०६॥ ज्ञानहीन गुणरहित विरोधी, लंपट धीठ कषाय खरोरे । तुझ विन तारक कोई न दीसे, जयो जगदीसर सिद्धगिरोरे ।। अ०१० ॥ तिर्यंच नरक गति दूर निवारी, भवसागरकी पीर होरे । आतमराम अनघपद पामी, मोक्षवधू तिण वेग वरोरे ।। अ०११॥ लावनी-मराठी. ऋषभजिनंद विमलगिरि मंडन, मंडन धर्मधुरा कहिये । तू अकलसरूपी, जारके करम भरम निजगुण लहिये ॥ ऋ०१॥ अजर अमर प्रभु अलख निरंजन, . भंजन समर समर कहिये। तूं अदभुत योद्धा, मारके करमधार जग जस लहिये ।। ऋ०२ ॥ For Private & Personal use only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय विभु ईश जगरंजन, रूप रेख विन तूं कहिये। शिव अचर अनंगी, तारके जगजन निजसत्ता लहिये ।। ऋ० ॥३॥ शत सुत माता सुता मुहंकर, जगत जयंकर तूं कहिये । निजजन सब तारे, हमोंसे अंतर रखना ना चाहिये ।। ऋ० ॥४॥ मुखड़ा भीचक बेसी रहना, दीनदयाल को ना चाहिये। हम तनमन ठारो, वचनसे सेवक अपना कहदइये ।। ऋ० ॥५॥ त्रिभुवनईश सुहंकर स्वामी, अंतरयामी तू कहिये। जब हमको तारो, प्रभुसे मनकी बात सकल कहिये । ऋ०॥६॥ कल्पतरु चिंतामणि जाच्यो, आज निरासे ना रहिये। तूं चिंतत दायक, wale sporon . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दासकी अरजी चित्त में दृढ गहिये || ऋ० ॥ ७॥ दीन हान पर गुणरस राची, सरण रहित जगमें रहिये । तूं करुणासिंधु, दासकी करुणा क्यों नहीं चित्त गहिये ।। ऋ० ||८|| तुम बिन तारक कोई न दीसे, होवे तो तुमको क्यों कहिये । यह दिल में ठानी, तारके सेवक जगमें जस लहिये || ऋ० ॥ ६॥ सातवार तुम चरणे आयो, दायक शरण जगत कहिये । धरने बेसी, नाथ से मनवंछित सबकुछ लहिये ।। ऋ० ।। १० ॥ गुणी मानी परिहरसो तो, दिगुणी जग को कहिये । जो गुणीजन तारे, तो तेरी अधिकता क्या कहिये || ऋ० ॥ ११ ॥ तम घटमें खोज पियारे, बाह्य भटकते ना रहिये । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) तूं अज अविनाशी, धार निजरूप आनंदघन रस लहिये || ऋ० ॥ १२ ॥ तमानंदी प्रथम जिनेश्वर, तेरे चरण शरण रहिये । सिद्धाचल राजा, सरे सब काज आनंदरस पी रहिये ।। ऋ० ।। १३ ॥ ( ३ ) चाल - महावीर तोरे समवसरण करे. जिनंदा तोरे चरणकमल की रे, हुं चाहुं सेवा प्यारी । तो नासे कर्म कठारी, भवभ्रांति मिटगइ सारी ॥ जिनंदा० ॥ १ ॥ विमलगिरि राजेरे, महिमा अति गाजरे । बाजे जग डंका तेरा, तुं सच्चा साहिब मेरा । हुं बालक चेरा तेरा || जिनंदा० ॥ २ ॥ करुणा कर स्वामीरे, तुं अंतरजामीरे । नामी जग पूनमचंदा, तुं अजर अमर सुखकंदा | तुं नाभिराय कुल नंदा || जिनंदा० ॥ ३ ॥ L Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इण गिरि सिद्धारे, मुनि अनंत प्रसिद्धार । प्रभु पुंडरीक गणधारी, पुंडरीक गिरि नाम कहारी । ___ ए सहु महिमा है थारी | जिनंदा० ॥४॥ तारक जग दीठारे, पापपंक सहु नीठारे । इच्छा मो मनमें भारी, में कीनी सेवा थारी । हुं मास रह्यो शुभ चारी । जिनंदा० ॥ ५॥ अब मोहे तारोरे, विरुद तिहारोरे । तीरथ जिनवर दो भेटी, हुं जन्म जरा दुःख मेटी। हुँ पायो गुणनी पेटी । जिनंदा०॥६॥ द्राविड वारिखिल्लारे, दशकोडी मुनि मिल्लारे। हुआ मुक्ति रमणी भरतारा, कार्तिक पूनम दिन मारा। जिनशासन जग जयकारा ॥ जिनंदा० ॥७॥ संवत शिखीचारारे, निधि इंदु उदारारे । आतमको अानंदकारी, जिनदर्शनकी बलिहारी। पाम्यो भवजलधि पारी । जिनंदा०॥८॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) लावणी. तीर्थ सिरी सिद्धाचल राजे, जहां प्रभु आदिनाथ गाजे । तीर्थ अंचली । श्री सिद्ध गिरि तीरथ बड़ो, सब तीरथ सरदार। गण धर पुडारक मोक्षसे, नाम पुंडरिक गिरि धार । नाभिनंदन इण गिरि राजे-तीर्थ० ॥१॥ विमलाचल कंचन गिरि, सिद्ध क्षेत्र शुभ ठाम । जो सेवे भवी भावसे, पावे अविचल धाम । ___ धाम गुण गणका ये छाजे-तीर्थ ॥२॥ जय जय श्री जिन आदिदेव, धर्म धुरंधर जान । पूर्व निनानवे नाथजी, आप पधारे आन । ___ आन ये तीरथ की बाजे-तीर्थ ॥३॥ यात्रा करने क लिये, ठौर ठौरके लोग। आते हैं शुभ भाव से, शुद्ध पुण्य के जोग। ___ पापी इण गिरि आते लाजे-तीर्थ० ॥ ४ ॥ नंदन दशरथ रायके, रामचंद्र गुण धाम । पांडव पांचों भरतजी, पाये पद अभिराम । नाम सिमरनसे अघ भाजे-तीर्थ ॥५॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) दर्शन शुद्धि कारणे, यह तीरथ शुभ कार द्राविड वारी खिल्लजी, दश कोटी परिवार । आये शिवपुर लेने काजे-तीर्थ० ॥६॥ सूरि शुक शेलक थया, थावच्चा ऋषिराव । षट नंदन देवकी तणे, रामकृश्नके भाय । ___हुये इणगिरि शिवपुर राजे-तीर्थ० ॥७॥ रिसि तपी मुनि संयमी, रत्नत्रयीके धार । अनशन करी मुक्तिगये, आतम वल्लभ तार । तारणे तीरथ सिरताजे-तीर्थ० ॥ ८ ॥ (५) आशा. श्री विमलाचल तीर्थ सुहंकर, भवोदधि तारण हाररी ॥ श्री० ॥ अंचली ॥ द्रव्य भावसे तीरथ जानी, लोकोत्तर लौकिक पिछानी । परमारथ शुभ गहे भविप्रानी, ज्ञान ध्यान शुभ धाररी ।। श्री०॥१॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टापद आबु गिरनारी, समेत शिखर चंपापुरी सारी | पावापुरी शत्रुंजय धारी, सिद्धगिरि सब सरदाररी ॥ श्री० ॥ २ ॥ नेमिनाथ विन जिन तेवीसा, समवसरे सहु विमल गिरिसा । ऋषभदेव श्रये जगदीसा, पूर्व निनानवे वाररी ॥ श्री० ॥ ३ ॥ शांतिनाथ पुंडरीक गणधारी, पुंडरीक गिरि तीरथ बलिहारी । धनधन यात्रा करे नरनारी, जन्म मरण दुःख टाररी ॥ श्री० ॥ ४ ॥ राम भरत पांडव वलवंता, थावच्चात शुक गुणवंता । कर्मखपी हुए सिद्ध भगवंता, आवागमन निवाररी ॥ श्री० ॥ ५ ॥ द्राविड वारिखिल्ल सेलक संता, देवकी षट नंदन मुनि खंता । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) इत्यादिक हुये सिद्ध अनंता, सिद्धाचल सुखकाररी ॥ श्री० ॥ ६ ॥ भाव धरी तीरथ गुण गावे, तम लक्ष्मी भविजन पावे | विजयानंद सूरि पद थावे, वल्लभ हर्ष अपार ॥ श्री० ॥ ७ ॥ ( ६ ) सिद्धाचलगिरि भेट्योरे, धन्यभाग हमारा | सिद्धा० अंचली। ए गिरिवरनो महिमा मोटो, कहेतां न आवे पारा । रायणरुख समोसर्या स्वामी, पूर्व नवाणुं वारारे। धन्यभाग हमारा सि० ॥ १ ॥ मूलनायक श्री आदिजिनेश्वर, चौमुख प्रतिमा चारा | अष्टद्रव्यसुं पूजो भावे, समकित मूल आधाररे ॥ धन्य०२ ।। भाव भक्तिसुं प्रभुगुण गावे, अपना जन्म सुधारा । यात्राकरी भविजन शुभ भावे, नरक तिथेच गति वारारे ॥ ध.३॥ दूरदेशांतरथी हुं आव्यो, श्रवणे सुखी गुण तारा। पतित उद्धारण बिरुद तुमारुं, ए तीरथ जग सारारे ॥ ध.४॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m. संवंत अढार त्यासी मास अषाढा, वदि आठम भोमवारा। प्रभुके चरण प्रताप संघमां, क्षमारतन प्रभु प्यारारे ।। ध.५॥ (७) माता मरुदेवीनानंद, देखी ताहरी मूरती मारुं मन लोभापुंजी । करुणानागर करुणासागर, काया कंचनवान । धोरी लंछन पाउले कांइ, धनुष पांचसे मान ।। माता० ॥१॥ त्रिगडे बेसी धर्म कहता, मुणे पर्षदा बार। जोजन गामिनी वाणी मीठी, वरसंती जलधार ॥ माता ॥२॥ उर्वसी रुडी अपछराने, रामा छे मन रंग। पाये नूपुर रणझणे काइ, करती नाटारंग ।। माता०॥३॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुंही ब्रह्मा तुंही विधाता, तुं जगतारणहार । तुज सरीखा नहि देव जगतमां, अडवडीया अाधार ॥ माता० ॥४॥ तुहीं भ्राता तुही त्राता, तुंही जगतनो देव । सुर नर किन्नर वासुदेवा, करता तुज पद सेव ।। माता०॥ ५ ॥ श्रीसिद्धाचल तीरथकेगे, राजा ऋषभ जिणंद । कीर्ति करे माणेक मुनि ताहरी, टालो भवभयफंद ।। माता० ॥६॥ (८) तुमतो भले बिराजोजी, श्रीसिद्धाचलके वासी साहेब भले विराजाजी । अंचली ।। मरुदेवीनो नंदन रूडो, नाभिनरिंद मल्हार । जुगलाधर्म निवारण आन्या, पूर्व नवाणुं चार । तुमे० १॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) मृलदेवने सनमुख राजे, पुंडरीक गणधार । पांच कोडि मुं चैत्री पूनम, वरीषा शिववधु सार । तुमे० २॥ सहसकूट दक्षिण बिराजे, जिनवर सहस चोवीस । चौदसो बावन गणधरना, पगलां पूजो जगीस। तुमेतो.३॥ प्रभुनां पगला-रायणहेठे, पूजो परमानंद । अष्टापद चोवीस जिनेश्वर, संमेते बीस जिणद । तुमे० ४॥ मेरुपर्वत चैत्य घणेरा, चउमुख बिंब अनेक । बावन जिनालय देवल निरखी, हरख लहु अतिछेक । तुमे०५॥ सहसफणाने शामला पारस, समवसरण मंडाण । श्रीपावसीने खडतरवसी काइ, प्रेमावसी प्रमाण । तुमे०६।। संवत अढार ओगणपचासे, फागण अष्टमी दन । उज्वलपक्षे उज्वल हुओ, गिरि फरस्या मुज मन । तुमे०७॥ इत्यादिक जिनबिंब निहाली, सांभली सिद्धनी श्रेण । उत्तम गिरिवर केणीपरे विसरुं, पद्मविजय कहे जेण । तुमे०८।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) श्रीसिद्धाचलजी की स्तुति. विमलगिरि सहु तीरथ राजा, नाभिको नंदन जिनवर ताजा, भवजलधिको जहाजा । नेमि विना जिनवर तेवीस, समवसरे सहु विमल गिरीस, भविजन पूरे जगीस ॥ सिद्धक्षेत्र जिन आगम भासे, दूरभवी भव्य निरासे, गिरि दरसण नवि पासे । कवड यक्ष चक्केसरी देवी, तीरथ सानिध्य कर सुख लेवी, तम सफल करेवी ॥ १ ॥ ( २ ) पुंडरगिरि महिमा आगममां परसिद्ध, | विमलाचल भेटी लइये अविचल रिद्ध | पंचमी गति पहुंता मुनिर कोडाकोड, इस तीरथ व कर्म विपाक विछोड़ ॥ १ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ । श्रीशकुंजय आदिजिन आव्या पूर्व नवाणुं वारजी, अनंत लाभ तिहां जिनवर जाणी समोसर्या निरधारजी । विमलगिरिवर महिमा म्होटो सिद्धाचल ते ठामजी, कांकरे कांकरे अनंता सिद्धा एकसोने आठ गिरिनामजी॥१॥ (४) पुंडरीक मंडन पाय प्रणमोजे आदीश्वर जिनचंदाजी, नेमिविना वीस तीर्थकर गिरि चढिया आनंदाजी। अागम माहे पुंडरीक महिमा भाख्यो ज्ञानदिनंदाजी, चैत्री पूनमदिन देवी चक्केसरीसौभाग्य दियो सुखकंदाजी ॥१॥ yaan समाप्तम् yam AAS Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि. उन भाग्यवानों को धन्य है जो साक्षात् श्रीतीर्थाधिराज श्री सिद्धगिरिजी तीर्थकी यात्रा का लाभ लेते हैं । जो अशक्त असमर्थ या अन्यान्य कार्यवश द्रव्य क्षेत्र कालानुसार तीर्थ पर नहीं जा सकते हैं उन भव्यात्माओं को भी चाहिये, भाव पूर्वक अपने अपने क्षेत्रमें श्रीसिद्धाचलजी तीर्थ की प्रतिकृति-नकशा-पट्टके सन्मुख उत्साह और आडंबरसे जाकर तीर्थयात्रा का लाभ लेवें । सर्व श्रीसंघ यथाशक्ति उत्सवपूर्वक साथमें जावे जिससे श्रीजेन शासन की महिमा होवे और आज जैनोंका अमुक पर्वका दिन है मालूम हो जावे । यूं तो तीर्थ यात्रा हमेशां हो सकती है तथापि कार्तिकी पूनम और चैत्री पूनम यह दो दिन तो खास करके तीर्थ यात्रा करनेके हैं, जिनमें भी कार्तिकी पूनम मुख्य मानी जाती है । इस लिये दोनों में बन सके तो बहुत ही अच्छा है, यदि न बन सके तो Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) कार्तिकी पूनम को तो अवश्यमेव यात्रा होनी चाहिये । क्योंकि साधु साध्वियों को चैत्री पूनम की यात्रा का लाभतो विहार करते करते उससमय वहां पहुंचजावे तो होसकता है परन्तु कार्तिकी पूनमका तो तबही लाभ मिल सकता है जब कभी श्रीसिद्धगिरि राजकी छायामें-पाली ताना-नगरमें चौमासा होवे ! और हमेशां वहां चौमासा होना असंभव है, इसलिये भी जहां साधु साध्वियोंका चौमासा होता है वहां वहां सर्वत्र प्रायः श्रीसंघ मिलकर-साध. साध्वी, श्रावक और श्राविका-चतुर्विध श्रीसंघ इस प्रकार अर्थात् कार्तिकी पूनमके दिन आडंबर के साथ चतुर्मास की समाप्ति सूचक तीर्थयात्रा निमित्त श्रीसिद्धाचलजीके पट्टके दर्शनार्थ जाता है। ____ वहां पहुंचते ही श्रावक श्राविका यथाशक्ति भक्तिपूर्वक धूप, दीप, अक्षत (चावल) फल-(श्रीफल-नारियल आदि) नैवद्य और नकदी वगैरह चढ़ाकर द्रव्यपूजाका लाभ लेलेवें, बादमें यदि साधु साध्वीका योग होवे तो उनके साथ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) ही अन्यथा श्रावक श्राविका खड़े खड़े इसी पुस्तक के पृष्ठ ६ पर दिया हुआ "श्रीसिद्धाचलजीका स्तोत्र" हाथ जोडकर थोडासा मस्तक झुकाकर मीठी सुरीली आवाज से पढ़े | इसके बाद विधिपूर्वक चैत्यवंदन करे । चैत्यवंदन के बाद इस पुस्तक के प्रारंभ में ही दिये हुये दोहे पढ़कर क्रमसे २१ क्षमाश्रमण देवें । अंत में अविधि श्राशातना हुई होवे तो “मिच्छामि दुक्कडं " कह कर क्षमा प्रार्थी बने. इति ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!! M TUNN Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्वेश! परोपकाराय सतां विभूतयः -शांतमूर्ति परमोपकारी मुनिमहाराज १०८ श्री "हंसविजयजी" महाराजके सदुपदेश से, अहमदाबाद निवासी सेठ जमनाभाई भगुभाई ने अपने न्यायोपार्जित शुभ द्रव्य से "तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचल जी" का पट्ट-नकशा बनवा कर श्रीसंघ लाहौर (पंजाब) को दर्शनार्थ भेट भेजा है, जिसकी बाबत श्रीसंघ लाहौर, पूर्वोक्त मुनिमहाराज के चरणों में "वंदना" पूर्वक और सेठजी साहब को "श्रीजयजिनेश्वरदेव" पूर्वक अनेकशः धन्यवाद देता है। पूर्वोक्त पट्ट के शहर लाहौर में पहुंचने पर " श्रीवात्मानंद जैन सभा लाहौर' की तर्फ से, चतुर्मास स्थित मुनिमहाराज १०८ श्री "वल्लभविजयजी" (कि जिनके प्रतापसे यह पूर्वोक्त लाभ हमको प्राप्त हुआ है) की सेवा में प्रार्थना की गई कि, पट्ट के दर्शन समय जो विधि विधान प्रचलित है वह सब प्रायः गुजराती भाषा में है कि, जिस भाषा को हम पूर्णतया ठीक ठीक समझ नहीं सकते और विना समझ के जो भावोल्लास होना चाहिये नहीं हो सकता, अतः कृपया आप ऐसी योजना कर देवें कि, जो केवल हमको ही नहीं कुल पंजाब के, बलकि गुजरात काठियावाड़ के सिवाय अन्यत्र सारे हिंदुस्तान के श्री जैन संघ को फायदा दे सके। गुजरात काठियावाड़ का श्रीसंघ . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो अपने देशकी भाषा का हमेशां लाभ लेता ही है त - संभव है आपकी की हुई योजना गुजरात काठियावाड के |" संघको भी अधिक आनंद देगी / यात्रार्थ गये हुये हगुजरात काठियावाडमें भी आपकी बनाई पूजायें बड़े शौक / आनंद से पढ़ाते हुए देखे हैं / मतलब आप जो कुछ योजना करदेवेंगे हमे आशा है हिंदुस्तानमें सर्वजिनसंघमें उसका प्रचार हो जावेगा। ___इस हमारी प्रार्थनाको ध्यानमें लेकर आपने नयी योजना तैयार न करके पूर्वपुरुषों के मानकी खातर 108 श्रीशुभ वीरविजयजी महाराजके बनाये हुये 21 क्षमाश्रमणके दोहेको ही, कुछ समझमें आजावे उस ढबमें लिखकर, उन्ही महापुरुषके शुभ नामसे प्रकट करनेकी सूचना पूर्वक हमको बक्षीस किया गया, जिसकी बाबत आपका उपकार मानते हुये इस शुभ योज. नाको, इसी समय काम आनेवाले कितनेक चैत्यवंदन-स्तवन स्तुतियोंके संग्रह सहित इस छोटेसे ट्रेक्टके रूपमें आपश्री जैनसंघके करकमलमें समर्पित करते हैं / ... हम हैं आपश्रीजैनसंघके सेवक. श्रीवात्मानंद जैनसभा लाहौरके मेम्बर. श्रीवीर संवत् 2451 श्रीश्रात्म संवत् 26 विक्रम संवत् 1981 ई. सन 1624 कार्तिक सुदि ५-ज्ञानपंचमी .