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मुझ सरीखा निंदक जो तारो, तारक धिरुद ए साच लह्योरे।। अ०६॥ ज्ञानहीन गुणरहित विरोधी, लंपट धीठ कषाय खरोरे । तुझ विन तारक कोई न दीसे, जयो जगदीसर सिद्धगिरोरे ।। अ०१० ॥ तिर्यंच नरक गति दूर निवारी, भवसागरकी पीर होरे । आतमराम अनघपद पामी, मोक्षवधू तिण वेग वरोरे ।। अ०११॥
लावनी-मराठी. ऋषभजिनंद विमलगिरि मंडन, मंडन धर्मधुरा कहिये । तू अकलसरूपी, जारके करम भरम निजगुण लहिये ॥ ऋ०१॥ अजर अमर प्रभु अलख निरंजन, . भंजन समर समर कहिये। तूं अदभुत योद्धा, मारके करमधार जग जस लहिये ।। ऋ०२ ॥
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