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________________ ' ९९) इत्थं स्तुतः प्रथमतीर्थपतिः प्रमोदात्, श्रीमद्यशोविजयवाचकपुङ्गवेन । श्री पुण्डरीकगिरिराजविराजमानो, मानोन्मुखानि वितनोतु सतां सुखानि ॥ श्रा. ६ ॥ इति श्रीमहामहोपाध्याय श्री मद्यशोविजयगणिनिर्मित श्रीश्रदिनाथस्तवनम् । श्रीसिद्धा चलतीर्थचैत्यवंदन. ( १ ) विमल गिरिवर सयल अघहर भविकजन मनरंजना, निजरूपधारी पापटारी आदिजिन मदभंजनो । जगजीव तारे भरमफारे सवल अरिदलगंजनो, पुंडरीक गिरिवर शृंग शोभे आदिनाथ निरंजनो ॥ १ ॥ अज अमर अचर आनंदरूपी जन्म मरण विहंडनो, सुर असुर गावे भक्तिभावे विमलगिरि जग मंडनो । पुंडरीक गणपति राम पांडव आदि ले बहु मुनिवरा, जिहां मुक्तिरामा वर्या रंगे कर्म कंटक सहु जरा ॥ २ ॥ कोइ तीर्थ जगमें अन्य नाही विमलगिरि सम तारकं, जे दूरभावया जे अभविया सदा दृष्टि निवारकं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003651
Book TitleSiddhachal Tirth ke 21 Kshamashraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1924
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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