Book Title: Siddhachal Tirth ke 21 Kshamashraman
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 7
________________ ( १० ) दशकोटी अणुव्रत धरा, भक्ति जिमावें सार । जैन तीर्थ यात्रा करे, नहीं लाभका पार ॥ २१ ॥ तिससे भी सिद्धाचले, एकमुनि दिये दान | लाभ अधिका जानियें, महातीर्थ अभिधान ॥ २२॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमकार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ॥" इच्छामि खमासमणो० ॥ १० ॥ ( ११ ) प्राये यह गिरि शाश्वता, रहगा काल अनंत । शत्रुंजय महातम सुनी, नमो शाश्वत गिरि संत ॥ २३ ॥ “सिद्धाचल सिमरुं सदा, सोरठ देशमभार । मनुजजन्म शुभ पायके, वंदूं वार हजार ॥" इच्छ मि खमासमणेो० ॥ ११ ॥ ( १२ ) नारी बालक मुनि चउ हत्या करनार । यात्रा शुभभावें करे, पापपुंज दे जार ।। २४ ।। जे परदारा लंपटी, चोरी के करनार । देव द्रव्य भक्षण करे, धर्म द्रव्य हरनार || २५ || चैत्री कार्त्तिकी पूनमे, करे यात्रा इस धाम । तप तपते पातिक टरे, तिथ दृढ शक्ति नाम ॥ २६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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