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श्रुतसागर
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नवम्बर २०१४
दत्त - जिस व्यक्ति के द्वारा हस्तप्रत प्रदान की गयी हो उस व्यक्ति को 'दत्त' प्रकार का विकल्प चुनकर देनेवाले का नाम उसके साथ लिंक करते हैं. किसी ने मात्र पढने के लिये भी किसी को प्रत दी हो तो स्पष्ट रूप से प्रत के अंत में लिखा मिलता है कि- 'आ प्रत वांचवा सारु आपी छे, कोइए दावो करशो नहीं. इस प्रकार के व्यवहार का यदि संकलन किया जाय तो कृति के विषयवस्तु के बाद में लिखित प्रतिलेखक तथा हस्तप्रत के मालिक आदि के संबंध में एक सुंदर परंपरागत व्यवहार का दर्शन हो पायेगा. प्रत संख्या १४९ के अंत में वि.सं. १५८० में श्रावक वच्छ शाह के द्वारा श्रावक नरसिंघ शाह को दिये जाने के कारण श्रावक वच्छ शाह को विद्वान प्रकार 'दत्त' के रूप में बताया गया है.
क्रीत - व्यावहारिक लेन-देन के अंतर्गत ही हस्तप्रत के महत्त्व के अनुसार विक्रेता के द्वारा तय की गयी धनराशि को क्रेता जब खरीद लेता है तो उसके लिये क्रीत विद्वान प्रकार का चयन करते हैं. व्यावहारिक लेन-देन, खरीद-बिक्री जैसी बाते मूल प्रतिलेखक द्वारा लिखित नहीं होती अपितु परवर्ती काल में जिस व्यक्ति द्वारा क्रयविक्रय होता है, वह लिखता है अथवा किसी से लिखवाता है. अनुमानतः यह भी कहा
सकता है कि बाद में कोई इस प्रत दावा नहीं करें कि यह प्रत मेरी है. इस प्रकार के भावयुक्त पुष्पिकाओं में उल्लेख मिलते रहते हैं. उदाहरण के लिये प्रत संख्या२१३९८ उपदेशमाला नामक प्रत के अंत में “उपदेशमाला की पोथी मूलचंदनै दीनी २/ एलचपुरमै सं.१८९४ मिती आसोज सुदी५ गुवचंद दीनी । कोइ दावो करणपावै नहीं” का उल्लेख मिलता है.
विक्रीत-क्रीत की भाँति विक्रीत भी समझने योग्य है. एक ही पुष्पिका में प्रायः दोनों उल्लेख मिलते हैं, कारण कि क्रीत व विक्रीत का परस्पर संबंध होता ही है. एक के बिना दूसरे का होना संभव नहीं है. अमुक व्यक्ति के पास से मैंने यह हस्तप्रत इतने रूपये / आने/पैसे आदि में खरीदी. यहाँ दोनों व्यक्ति की क्रियाएँ अलग-अलग होने से तथा बेचने संबंधी विक्रीत नाम का प्रकार दर्शाने के लिये भेद रखा गया है.
प्रतिलिपिकृत-वस्तुतः परंपरा से लिखी गयी प्रत एक दूसरे की प्रतिलिपि ही होती है किन्तु किसी लहिये ने निखालसपूर्वक याथातथ्य को स्वीकारा है तो हमें भी परिचय उसी प्रकार से देना उचित है. अतः लिपिकार व प्रतिलिपिकार ये दो अलग-अलग प्रतिलेखक प्रकार हुए. प्रास्ताविक वक्तव्य में यह कहा जा चुका है कि प्रतिलेखक बड़े ही सरल स्वभाव के होते हैं. मूल कृतिगत विषयवस्तु को यथावत् लिखने के बाद प्रतिलेखन पुष्पिका में जो भी वास्तविकता होती है उसे साफ-साफ उल्लेख कर देते हैं. उदाहरण के लिये प्रत संख्या - २२७६ ढुंढकमत चर्चा नामक प्रत
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