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श्रुतसागर
नवम्बर-२०१४ दिया है, थोड़ा कुछ लिखकर यूं ही नाम लिख दिया है, ऐसे विद्वानों को मात्र उनकी ऐतिहासिकता के प्रमाण के तौर पर अपनी सूची में रखने हेतु संग्रह करते हैं. मूल प्रतिलेखक से इनका किसी प्रकार का संबंध नहीं होता है. कालान्तर में कभी-कभी मूल लेखन के काफी बाद में पेंसिल से लिखा हुआ प्रत के स्वामित्व भाव को दर्शाने हेतु नाम लिखा मिलता है. प्रत संख्या-५१२७२ स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन नामक प्रत रूपकुंवरी श्राविका के अध्ययन के लिये लिखी गयी है. अतः इस प्रत की प्रतिलेखन पष्पिका में रूपकुंवरी को साध्वी लब्धिलक्ष्मी की 'निसालणी' बताया गया है, परन्तु साध्वी लब्धिलक्ष्मी हेतु उपर्युक्त विद्वान प्रकारों में से कोई प्रकार न होने पर इन्हें विद्वान प्रकार अन्य के द्वारा सूचि में संकलन किया गया है.
फिर से एक बार बताना चाहते हैं कि प्रतों में रचना के अतिरिक्त उपलब्ध तत्कालीन व परवर्ती समय में चाहे जितने भी लोगों के नाम मिलते हों, उसे संगणकीय सूचना संग्रहण पद्धति के अन्तर्गत अचूक समावेश किया जाता है. ऐसे जिन लोगों के नाम मिलते हैं, उन्हें विद्वान की संज्ञा द्वारा ही पहचानते हैं. इससे हमें पुरातन लेखन कार्य का पारंपरिक व्यवहार ज्ञात होता है. विद्वानों की सूची तैयार होती है. कभी-कभी कोई ऐतिहासिक कड़ी भी मिल जाती है. इस प्रकार विद्वानों की सूचनाओं का संग्रह करने पर ज्ञानमंदिर की सूचना समृद्धि में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सतत अभिवृद्धि होती रहती है. व्यवसायिक रूप से लिखनेवालों में मुख्यतया ब्राह्मण, बारोट, संन्यासी, यति आदि समाज के लोग मिलते हैं. परंपरागत लिखने की पेशा के कारण अपने नाम के बाद लहिया ऐसा उल्लेख भी प्रतों में मिलता है.
ज्ञानमंदिर के इस ज्ञानयज्ञ में चल रहे विविध कार्यों में एक महत्वपूर्ण कार्य हस्तप्रत सूचीकरण के अन्तर्गत हस्तप्रत से सम्बद्ध नयी-नयी जानकारियों व कार्यगत अनुभवों को एक नये विषय के माध्यम से वाचकों के सम्मुख प्रस्तुत करने की शृंखला अगले अंकों में भी इसी तरह जारी रहेगी.
ध्यातव्य-शक्यतम प्रयासों के द्वारा संबंधित उदाहरणों को बताया गया है. जो यूं ही स्पष्ट है उसका उदाहरण नहीं दिया गया है. उदाहरण के अन्तर्गत उल्लिखित प्रतसंख्या भी आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के हस्तप्रत भंडार की है. वाचकों को हस्तप्रत वाचन/अध्ययन रसप्रद लगे तथा हस्तप्रत संपादन-संशोधन की दिशा में जागृति लाने हेतु साथ ही हस्तप्रतों के प्रति अभिरुचि बढे, एतदर्थ स्वानुभव से मौलिक लेख के द्वारा संदेश देने का एक प्रयासमात्र है. वाचक इससे किञ्चित् भी लाभान्वित होते हैं तो लिखना सार्थक समझा जायेगा.
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