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SHRUTSAGAR
___NOVEMBER-2014 आत्मारामजी के शिष्य शांतिविजयजी के द्वारा लिखित है, इसी प्रति पर से अमरदत्त ब्राह्मण मेदपाटी ने प्रतिलिपि की है.
हस्तप्रतों में प्राप्त उदाहरणों से इसे अग्रलिखित रूप से बताया जा रहा है
मूल प्रतिलेखक व प्रतिलिपिकार की प्रतिलेखन पुष्पिकाओं का स्पष्ट उल्लेखप्रतिलिपिकार के द्वारा लिखित प्रतें जो स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं, उसमें जिस प्रतिलेखक के प्रत पर से प्रतिलिपि की जाती है, प्रतिलिपिकार उस प्रतिलेखक की सम्पूर्ण प्रतिलेखन पुष्पिका पहले लिखता है, इसके बाद वह अपनी प्रतिलेखन पुष्पिका का उल्लेख करता है, उसमें कहीं-कहीं 'प्रतिलिपिकृतम्' ऐसा लिखा हुआ देखने को मिलता है.
अन्यस्रोत से प्राप्त प्रत की प्रतिलिपि करने का उल्लेख-प्रतिलेखक के पास अपेक्षित अनुपलब्ध प्रत होने से जिस किसी स्रोत से वह प्रत प्राप्त करके उसकी नकल करता है, तो अपनी प्रतिलेखन पुष्पिका का स्पष्ट उल्लेख करता है कि अमुक संवत्, मास, पक्ष, तिथि, वार को अमुक व्यक्ति से प्रत प्रतिलिपि करने हेतु लिया तथा इतने दिनों में लिखकर वापस किया.
प्रतिलिपिकृत भ्रामक प्रतिलेखन पुष्पिका-किसी-किसी प्रत में तो किसी पुरानी प्रत पर से प्रतिलेखक प्रतिलिपि करता है तथा उस प्रत में जो उपलब्ध प्रतिलेखन पुष्पिका होती है उसे तद्वत् लिख देता है, किन्तु अपने बारे में प्रतिलेखन पुष्पिका कुछ भी नहीं लिखता है. ऐसी अवस्था में भ्रम होता है कि प्रत में जो उल्लिखित प्रतिलेखन संवत् है, क्या वह सही है? प्रतिलेखन संवत् व लिखावट दोनों एक दूसरे सम्बन्धित विषय है. प्रतिलेखन संवत् न होने पर भी प्रत की लिखावट व मरोड़ से अनुमानित वर्ष का आकलन करते हैं.उल्लिखित वर्ष व लिखावट में सामान्य अन्तर को समझा जा सकता है, किन्तु ज्यादा अन्तर हो तो भ्रम का कारण बनता है. जैसे कि वि.सं.१६वीं की प्रत पर से कोई वि.सं.१८वीं में नकल करता है, उसमें पूर्वप्रतिलेखक का उल्लेख करता है किन्तु अपने बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं करता, ऐसे में प्रत की लिखावट के आधार से यह माना जाता है कि यह प्रत वि.सं.१६वीं में लिखी गयी प्रत की प्रतिलिपि है. इस स्थिति में निश्चित वर्ष मिलते हुए भी अनुमानित वर्ष का आकलन करके संतोष करना पड़ता है.
अन्य-किसी व्यक्ति का नाम तो प्रतिलेखन पुष्पिका में है परन्तु लहिया उपरोक्त प्रकारों में से किसी का उल्लेख नहीं करता है, उसे “अन्य" नाम का विद्वान प्रकार कहा जाता है. ऐसे भी विद्वान हैं, जिन्होंने परवर्ती काल में मात्र अपना हस्ताक्षर कर
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