Book Title: Shruta Skandha
Author(s): Bramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 6
________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित - ब्रह्माहेमचंद्रविरचितः श्रुतस्कंधा रिसहाइवीरअंतहं चउवीसजिणाण णमहु पयजुयलं । बारस अंगाई सुदं कमविहियं भविय णिसुणेहु ॥1॥ अर्थ :- ऋषभ आदि वीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों के चरण युगलों को नमस्कार कर, शास्त्रोक्त क्रमानुसार बारह अंग रूप श्रुत के स्वरूप को कहूँगा। भव्य जीव ध्यानपूर्वक सुनें। उसप्पिणिअवसिप्पणिकालदुर्ग जाण दक्खिणे भरहे। सायरकोडाकोडी-अट्ठदसं भोयभूमिगया ।।2।। पल्लस्सट्ठमभाएचउदहणं कुलयराण उप्पत्ती। अंतिल्लणाहिणामो तस्स तिया णाम मरुदेवी ।।3।। अर्थ :- दक्षिण भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नाम के दो काल जानों। इन दोनों के (उत्सर्पिणी 10 + अवसर्पिणी 8) = 18 - कोडाकोड़ी सागर व्यतीत हो जाने पर तथा भोग भूमि के (जघन्य भोगभूमि) पल्य के आठवें भाग के शेष रहने पर चौदह कुलकरों की [1] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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