Book Title: Shruta Skandha Author(s): Bramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust RaipurPage 20
________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित = इगकोडिपणसहस्सा सीदीइगिअहियलक्रवपरिमाणं । एवं पंचपयारं परियम्मं णिच्छयं जाण ॥2811 18105000 अर्थ :- इस प्रकार उपर्युक्त पाँच प्रकार के परिकर्म के पदों का जोड़ एक करोड़ इक्यासी लाख पाँच हजार है जानना चाहिए। द्वादशांगस्य य दृष्टिवादस्य प्रथमपरिकम - तस्य भेदाः पंच कथिताः ॥७॥ इस प्रकार द्वादशांग के दृष्टिवाद नाम के प्रथम परिकर्म के पाँच भेद कहे गये। अडसीदी लक्खपयं कत्ता भुत्ता य कम्मफल जीवो। सव्वगयादियधम्मो सुत्तयडो फेडणो होइ।।29 ।। 8800000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान अठासी लाख पदों के द्वारा जीव को कर्म फल का कर्ता, भोक्ता, सर्वादिगत धर्म इत्यादि का निरूपण करता है, वह सूत्र नामक दृष्टिवाद का अर्थाधिकार है। विशेषार्थ - सूत्र अधिकार में सब मतों का निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त जीव अबन्धक है, अलेपक है, अभोक्ता है, अकर्ता है, निर्गुण है, व्यापक है, अद्वैत है, जीव नही है, जीव (पृथिवी आदि चार भूतों के) समुदाय से उत्पन्न होता है, सब नहीं है अर्थात् शून्य है, बाह्य पदार्थ नहीं है, सब निरात्मक है, सब क्षणिक है, सब अक्षणिक =[15] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50