Book Title: Shruta Skandha Author(s): Bramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust RaipurPage 35
________________ ब्रह्माहेमचंद्रविरचित अर्थ :- सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक, निषिद्धिका इन अंग बाह्य श्रुत के चौदह भेदों की तथा अन्य भी अंग बाह्य श्रुत की वंदना करता हूँ। विशेषार्थ - सामायिक प्रकीर्णक - सामायिक प्रकीर्णक द्रव्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक, काल सामायिक और भाव सामायिक के भेद से सामायिक चार प्रकार की है। अथवा नामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यसामायिक, क्षेत्रसामायिक, कालसामायिक और भावसामायिक इन छह भेदों द्वारा समता भाव के विधान का वर्णन करना सामायिक है। सचित्त और अचित्त द्रव्यों में राग और द्वेष का निरोध करना द्रव्यसामायिक है। ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, मंडव, पट्टन, द्रौणमुख और जनपद आदि में रागद्वेष का निरोध करना अथवा अपने निवासस्थान में साम्पराय (कषाय) का निरोध करना क्षेत्रसामायिक है। बसन्त आदि छह ऋतुविषयक कषाय का निरोध करना कालसामायिक है। जिसने समस्त कषायों का निरोध कर दिया है तथा मिथ्यात्व का वमन कर दिया है और जो नयों में निपुण है, ऐसे पुरुष को बाधारहित और अस्खलित जो छह द्रव्यविषयक ज्ञान होता है वह भावसामायिक है। अथवा तीनों ही संध्याओं में या पक्ष और मास के सन्धि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अंतरंग समस्त पदार्थों में कषाय का निरोध करना सामायिक है। सामायिक नामक प्रकीर्णक इस प्रकार काल का आश्रय करके और भरतादि क्षेत्र, संहनन तथा गुणस्थानों का आश्रय करके परिमित और अपरिमित रूप से सामायिक की प्ररूपणा करता है। -[30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50