Book Title: Shruta Skandha Author(s): Bramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust RaipurPage 27
________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचितको तथा द्वीन्द्रियादि जीवों के द्वारा प्रगट हुई वक्तृत्व पर्याय आदि का वर्णन करता है, उसे सत्यप्रवाद पूर्व कहते हैं। विशेषार्थ - जिसमें वाग्गुप्ति, वचनसंस्कार के कारण, प्रयोग, बारह भाषा, वक्ता, अनेक प्रकार का असत्य वचन और दस प्रकार का सत्य सद्भाव इनकी प्ररूपणा की गई हो वह सत्यप्रवादपूर्व है। जीवो णाणसुहादी कत्ताभुत्ताइधम्मसूययरो। छव्वीसं कोडिपयं पणवहं अप्पप्पवादोयं ॥44|| 26000000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान छब्बीस करोड़ पदों के द्वारा जीव ज्ञान सुखादिमय कर्ता, भोक्ता आदि धर्मों से युक्त है, इन सभी का वर्णन करता है, उसे आत्मप्रवाद पूर्व कहते हैं। छहसुण्णं अट्ठदसं कम्मोदयवंधणिज्जरादीया। पदसंख्याइपरूवं वंदे कम्मप्पवादोवि ॥45 ।। 18000000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान एक करोड़ अस्सी लाख पदों की संख्या द्वारा कर्म के बन्ध, उदय, निर्जरा आदि की प्ररूपणा करता है, उस कर्म प्रवाद पूर्व की मैं वन्दना करता हूँ। विशेषार्थ - जिसमें कर्म के बन्ध, उदय, उपशम और निर्जरा रूप पर्यायों का, अनुभाग, प्रदेश व अधिकरण तथा जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट स्थिति का निर्देश किया जाता है वह कर्मप्रवाद है अथवा जिसमें %3D[22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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