Book Title: Shruta Skandha
Author(s): Bramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 13
________________ ब्रह्माहेमचंद्रविरचित तिच्छयरगणहराणं धम्मकहाऊ कहति णित्ताओ। छप्पण्णं च सहस्सा पणलक्खा सुयपयं वंदे ।।15।। . 556000 अर्थ :- जो श्रुतज्ञान नियम से तीर्थंकरों की तथा गणधर देवों की धर्म कथाओं को पाँच लाख छप्पन हजार पदों के द्वारा कथन करता है, ऐसे ज्ञातृधर्मकथा अंग की मैं वंदना करता हूँ। विशेषार्थ - पाँच लाख छप्पन हजार पद युक्त ज्ञातृधर्मकथांग में सूत्रपौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से स्वाध्याय के प्रस्थापन में भगवान् तीर्थंकर की तालु व औष्ठपुट के हलन-चलन के बिना प्रवर्तमान समस्त भाषाओं स्वरूप दिव्यध्वनि द्वारा दी गई धर्मदेशना की विधि का, संशय युक्त गणधर देव के संशय को नष्ट करने की विधि का तथा बहुत प्रकार कथा व उपकथाओं के स्वरूप का कथन किया जाता है। सदर सहस्सलक्खं एयारहपयहसंखपरिमाणं । सावयवयं विसेसं तं भणियमुवासयज्झयणं ।।16।। 1170000 अर्थ :- ग्यारह लाख सत्तर हजार संख्या प्रमाण पदों के द्वारा जो अंग श्रावक के व्रतों का विस्तारपूर्वक वर्णन करता है, उसे उपासकाध्ययन अंग कहते है। विशेषार्थ - ग्यारह लाख सत्तर हजार पद प्रमाण उपासकाध्ययनांग में ग्यारह प्रकार श्रावक धर्म-दर्शन, व्रत, सामायिक, =[] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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