Book Title: Shruta Skandha Author(s): Bramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust RaipurPage 11
________________ ब्रह्माहेमचंद्रविरचितत्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय रूप दस स्थानों में प्राप्त होने से दस प्रकार का है कहा गया। दव्वे धम्माधम्मे लोयायासेहिं चेय जीवाणं। खित्ते जंबूदीवे कालो उसप्पिणिदुगादो ।।12।। भावे दंसणणाणं. भावे पडियायकं समवायं । अडकिदिसहस्सलक्खं पयसंखा थुणहं णियमेण ||13|| 164000 अर्थ :- समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का होता है। प्रथम द्रव्य समवाय का कथन इस प्रकार है :धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश परस्पर समान है, इसी प्रकार जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि इनके समान रूप से एक लाख योजन विस्तार की अपेक्षा क्षेत्र समवाय है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के समय परस्पर समान है, यह काल समवाय है। केवलज्ञान, केवलदर्शन के बराबर है, यह भाव समवाय है। इस प्रकार जिस अंग में एक लाख चौंसठ हजार पदों द्वारा सर्व पदार्थों की समानता का विचार किया जाता है। ऐसे समवायांग की मैं नियम से स्तुति करता हूँ। _ विशेषार्थ - समवायांग में एक लाख चौंसठ हजार पदों द्वारा सर्व पदार्थों की समानता का विचार किया जाताहै। वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का है। उनमें से प्रथम द्रव्य समवाय का कथन इस प्रकार है - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव, इन द्रव्यों के समान रूप से असंख्यातप्रदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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