Book Title: Shruta Skandha Author(s): Bramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust RaipurPage 10
________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित = इच्छा करना आदि स्त्री के लक्षणों का प्ररूपण करता है। जीवमजीवं दव्वं धम्माधम्मं च कालमायासं। वायालसहस्सपयं ठाणं पडिवायकं ठाणं ॥11॥ 42000 अर्थ :- जो श्रुत जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य के (एक को आदि लेकर एकोत्तर क्रम से) स्थानों का 42,000 पदों के द्वारा वर्णन करता है, वह स्थानांग है। विशेषार्थ - यह अंग बयालीस हजार पदों के द्वारा जीव और पुद्गल आदि के एक को आदि लेकर एकोत्तर क्रम से स्थानों का वर्णन करता है। यह जीव महात्मा अविनश्वर चैतन्य गुण से अथवा सर्वजीव साधारण उपयोगरूप लक्षण से युक्त होने के कारण एक है। वह ज्ञान और दर्शन, संसारी और मुक्त अथवा भव्य और अभव्य रूप दो भेदों से दो प्रकार का है। ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना की अपेक्षा, उत्पादव्ययध्रौव्य की अपेक्षा अथवा द्रव्यगुणपर्याय की अपेक्षा तीन प्रकार का है। नरकादि चार गतियों में परिभ्रमण करने के कारण चार संक्रमणों से युक्त है। औपशमिक आदि पाँच भावों से युक्त होने के कारण पाँच भेद रूप है। मरण समय में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व व अध: इन छह दिशाओं में गमन करने रूप छह अपक्रमों से सहित होने के कारण छह प्रकार है। चूंकि सात भंगों से उसका सद्भाव सिद्ध है, अत: वह सात प्रकार है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के आस्रव से युक्त होने अथवा आठ कर्मों या सम्यक्त्वादि आठ गुणों का आश्रय होने से आठ प्रकार का है। नौ पदार्थ रूप परिणमन करने की अपेक्षा नौ प्रकार है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक व साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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