Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AURANGACARE | अर्थ-भगवान् गौतमस्वामीभी जलसहित मेघके सदृश गंभीर स्वरसे सम्यक् धर्मका स्वरूप कहना प्रारंभ किया P कैसे हैं भगवान परोपकार करनेकी इच्छाहें जिन्होंकी ॥ ऐसे परोपकार करने में तत्पर ॥१५॥ भो भो महाणुभागा, दुल्लहं लहिऊण माणुसं जंमं। खित्त कुलाइ पहाणं, गुरु सामग्गिं च पुन्नवसा ॥१६॥ | अर्थ-अहो महानुभावो भाग्यवंतो पुन्यके वससे दुर्लभ मनुष्य भव पाके और प्रधान आर्यक्षेत्र कुलादिपायके और सद्गुरुका संयोगपायके ॥ १६॥ पंचविहंपि पमायं, गुरुयावायं विवजिउ झत्ति । सद्धम्मकम्मविसए, समुजमो होइ कायवो ॥ १७॥ | | अर्थ-मद १ विषय २ कषाय ३ निद्रा ४ विकथा ५ ये पांच बहुतकष्टका कारण ऐसा प्रमाद शीघ्र छोड़के 3 सम्यक् धर्मकार्यके विषय उद्यम करना योग्य है ॥ १७॥ सो धम्मो चउभेओ, उवइट्टो सयलजिणवरिंदेहि। दाणंसीलं च तवो, भावोविय तस्सिमे भेया॥१८॥ 8अर्थ-वह धर्म चार प्रकारका सम्पूर्ण तीर्थकरोंने कहा है चार भेद यह हैं दान १ शील २ तप ३ भाव ४॥ १८॥3 तत्थवि भावेण विणा, दाणं नह सिद्धिसाहणं होइ।सीलंपि भाव वियलं, विहलं चिय होइ लोगंमि॥१९॥ । अर्थ-वहांभी भावविना दान सिद्धिसाधक अर्थात् मोक्ष देनेवाला न होवे निश्चय सीलभी भावरहित लोकमें| निष्फलही होवे है ॥ १९॥ CAMSAMACHAOUDAUSA For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 334