Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 23
________________ प्रख्यात थे। महाराज जयसिंह (प्रथम) ने दिगम्बर जैनाचार्य गुणचन्द्र, वामुचन्द्र और वादिराज को अपनाया । पुलकेशी (प्रथम) ५५० ई और उसके पुत्र कीर्तिवर्मन (प्रथम) राज्यकाल ५६६ से १७ ई ने जैन मदिरो को कई दानपत्र दिये । कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेशी (द्वितीय) (राज्यकाल ६०६ से ६४२ ई )प्रख्यात जैन कवि रविकीर्ति का उपासक था, जिन्होने ऐहोल नामक अथ रचा। इसमे रविकीर्ति को कविताचातुरी के लिए कालिदास और भैरवि से उपमा दी। ऐहोल ग्रथ के कथनानुसार रविकीर्ति ने जिनेंद्र भगवान् का एक पाषाण का मदिर भी बनवाया । रविकीति को सत्याश्रय (पुलकेशी) का बहुत मरक्षण था और सत्याश्रय के राज्य की सीमा तीन समुद्रो तक थी। पूज्यपाद के शिष्य निरवद्य पडित (उदयदेव) जयसिंह (द्वितीय) के राज्यगुरु थे और विनयादित्य (६८० से ६९७ ई ) और उनके पुत्र विजयादित्य (६९६ से ७३३ ई ) ने निरवद्य पडित को जन-मदिर की रक्षा के लिए एक ग्राम दिया। उसके पुत्र विक्रमादित्य (द्वितीय) ने (राज्यकाल ७३३ से ७४७ ई) एक जैन मदिर की भली प्रकार मरम्मत कराई और एक दूसरे जैन साधु विजय पडित को इम मदिर की रक्षा के लिए कुछ दान दिया। किंतु वास्तव में जैनवर्म का स्वर्णयुग गग-राष्ट्र के गासको के समय मे था और यह पहले ही बताया जा चुका है कि श्रवणवेल्गोल मे मारसिंह (तृतीय) के सेनापति चामुण्डराय ने वाहुवली की अविनश्वर मूर्ति बनवाई। सक्षेप में यह कहा जा सकता है कि गगराष्ट्र के शासक कट्टर जैन थे। राष्ट्रकूट वश के शासक भी जैनधर्म के महान सरसक रहे है। गोविंद (तृतीय) (राज्यकाल ७६८ से ८१५ ई ) महान् जैनाचार्य अरिकीति का सरक्षक था। उसके पुत्र अमोववर्ष (प्रथम) राज्यकाल ८१४ से ८७८ ई को जिनसेनाचार्य के चरणो मे बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आचार्य जिनसेन गुणभद्र के गुरु थे। इन्होने सन् ७८३-८४ मे गोविंद (तृतीय) के ममय मे आदिपुराण के प्रथम भाग की रचना की और उसका उत्तरार्द्ध गुणभद्राचार्य ने सन् ८९७ में अमोववर्ष के उत्तराधिकारी कृष्ण (द्वितीय) के राज्यकाल ८८० से ६१२ में पूर्ण किया । अमोघवर्ष प्रथम के समय में

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