Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 125
________________ बाहुबलि-स्तवन यह बात बढी ओर सभी देश में छाई ॥ इतनी कि चक्रवति के कानों में भी आई ॥ सुन, दौड़े हुए आए भक्तिभाव से भरकर | फिर बोले मधुर वंन ये चरणों में झुका सर ॥ 'योगीश ! उसे छोडिये जो द्वन्द है भीतर । हो जाय प्रगट जिससे शीघ्र आत्म दिवाकर ॥ हो धन्य, पुण्यमूर्ति ! कि तुम हो तपेश्वरी ! प्रभु ! कर सका है कौन तुम्हारी बराबरी ? मुझसे अनेको चक्री हुए, होते रहेंगे । यह सच है कि सब अपनी इसे भूमि कहेंगे ॥ पर, आप सचाई पै अगर ध्यान को देंगे । तो चक्रधर को भूमि कभी कह न सकेगे ॥ मैं क्या हूँ ? तुच्छ ! भूमि कहाँ ? यह तो विचारो । काटा निकाल दिल से अकल्याण को मारो ॥' चक्री ने तभी भाल को धरती से लगाया । पदरज को उठा भक्ति से मस्तक पे चढ़ाया ॥ गोया ये तपस्या का ही सामर्थ्य दिखायापुजना जो चाहता था वही पूजने आया ॥ फिर क्या था, मन का द्वन्द सभी दूर हो गया । अपनी ही द्विव्य-ज्योति से भरपूर हो गया ॥ कैवल्य मिला, देवता मिल पूजने आए । मनाए ॥ फूले न समाए । नरनारियों ने खूब हो आनन्द चक्री भी अन्तरग में भाई की आत्म-जय पं अश्रु आँख में आए ॥ है वदनीय, जिसने गुलामी समाप्त की । मिलनी जो चाहिए, वही आजादी प्राप्त की । X X X. X ८९

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