Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 123
________________ बाहुबलि-स्तवन कर सकते वफादारी को हम किस तरह आशा? है भाई जहाँ भाई ही के खून का प्यासा ॥ चक्रोश ! चक्र छोड़ते क्या यह था विचारा? __ मर जाएगा वेमौत मेरा भाई दुलारा ॥ भाई के प्राण से भी अधिक राज्य है प्यारा । दिखला दिया तुमने इसे, निज कृत्य के द्वारा ॥ तीनों ही युद्ध में हुआ अपमान तुम्हारा । जव हार गए, न्याय से हट चक्र भी मारा ॥ देवोपुनीत शस्त्र न करते हैं वश-घात । भूले इसे भी, आ गया जब दिल में पक्षपात ॥ प बच गया पर तुमने नहीं छोड़ी कसर थी। मोचो, जरा भी दिल में मुहब्बत की लहर थी ? दिल में या जहर, आग के मानिंद नजर थी। ये चाहते कि जल्द वधे भाई को अरयी ॥ अन्धा किया है तुमको, परिग्रह की चाह ने । , सब कुछ भुला दिया है गुनाहों को छाह ने ॥ सोचो तो, वना रह सका किसका घमण्ड है ? जिसने किया उसोका हुआ खण्ड-खण्ड है ॥ अपमान, अहंकार की चेष्टा का दण्ड है । किस्मत का बदा, बल सभी बल में प्रचण्ड है ॥ है राज्य की ख्वाहिश तुम्हें लो राज्य संभालो । ___ गद्दी पै विराजे उसे कदमों में झुकालो : उस राज्य को धिक्कार कि जो मद में डुवा दे। उस राज्य अन्याय और न्याय का सव भेद भुला दे ॥ भाई की मुहब्बत को भी मिट्टी में मिला दे । या यों कहो-इन्सान को हैवान बनादे ॥

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