Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 122
________________ श्रवणवेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैन-तीर्थ यह पास था कि चक्री को धरती पै पटक दें। अपनी विजय से विश्व की सीमाओ को ढक दें। रण-थल में वाहुवल से विरोधी को चटक दें। भूले नहीं जो जिन्दगी-भर ऐसा सवक दें ॥ ___ पर, मन में सौम्यता की सही बात ये आई। 'आखिर तो पूज्य है कि पिता-सम बड़े भाई !!" उस ओर भरतराज का मन क्रोध में पागा । 'प्राणान्त कर दू भाई का, यह भाव या जागा ॥ अपमान की ज्वाला में मनुज-धर्म भी त्यागा । फिर चक्र चलाकर किया सोने में सुहागा ॥ वह चक्र जिसके बल पं छहो खण्ड झुके थे । ___ अमरेश तक भी हार जिससे मान चुके थे । कन्धे से ही उस चक्र को चक्री ने चलाया । सुरनर ने तभी 'आह से आकाश गुंजाया ॥ सव सोच उठे-'देव के मन क्या है समाया ?' पर चक्र ने भाई का नहीं खून बहाया ॥ वह सौम्य हुआ, छोड बनावट को निठुरता । देने लगा प्रदक्षिणा, घर मन में नम्रता ॥ फिर चक्र लौट हाथ में चक्रोश के आया । सन्तोष-सा, हर शख्स के चेहरे पे दिखाया ॥ श्रद्धा से बाहूबलि को सबने भाल झुकाया । फिर कालचक्र दृश्य नया सामने लाया ॥भरतेश को रणभूमि में धीरे से उतारा । तत्काल बहाने लगे फिर दूसरी धारा ॥ धिक्कार है दुनिया कि है दमभर का तमाशा । भटकाता, भ्रमाता है पुण्य-पाप का पाशा ।।

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