Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 115
________________ बाहुबलि-स्तवन इतने में उठी क्रान्ति को एक आग विषैली। जो देखते ही देखते ब्रह्माण्ड में फैली ॥ करने के लिए दिग्विजय भरतेश चल पड़े। कदमों में गिरे शत्रु, नहीं रह सके खड़े ॥ थी ताब, यह किसको कि जो चक्री से आ लड़े ? यो, आके मिले आप ही राजा बड़े-बड़े ॥ फिर हो गया छह-खण्ड में भरतेश का शासन । पुजने लगा अमरो से नरोत्तम का सिहासन ॥ या सबसे बड़ा पद जो हुकूमत का वो पाया। था कौन बचा, जिसने नहीं सिर था झुकाया ? दल देव-व-दानव का जिसे पूजने माया । फिरती थी छहों खण्ड में भरतेश को छाया ॥ यह सत्य हर तरह है कि मानव महान् था । गो, था नहीं परमात्मा, पर, पुण्यवान् था । जब लौटा राजधानी को चक्रोश का दल-बल । जिस देश में आया कि वहीं पड गई हल-चल ॥ ले-लेके आए भेंट-जवाहरात, फूल-फल । नरनाथ लगे पूछने-भरतेश की कुशल ।। स्वागत किया, सत्कार किया सवने मोद भर । या गूजता भरतेश की जयघोष से अम्बर ॥ था कितना विभव साय में, कितना था सैन्य-दल । कसे करूं बयान, नहीं लेखनी में बल ॥ हां इतना, इशारा ही मगर काफी है केवल । सब कुछ या मुहैया, जिसे कर सकता पुण्य-फल । सेवक करोडों साथ थे, लाखो थे ताजवर । अगणित थे अस्त्र, शस्त्र; देख थरहरे कायर ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131