Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 119
________________ बाहुबलि-स्तवन चुप सुनते रहे जब तलक, काबू में रहा दिल । पर, देर तक खामोशी का रखना हुआ मुश्किल ॥ फिर बोले जरा जोर से, हो क्रोध से गाफिल । 'मरने के लिए आएगा, क्या मेरे मुकाविल ? ___ छोटा है, मगर उसको वडा-सा ग़रूर है। ____ मुलको घमण्ड उसका मिटाना जरूर है ॥ फिर क्या था, समर-भूमि में वजने लगे बाजे । हथियार उठाने लगे नृप थे जो विराजे ॥ घोड़े भी लगे हींसने, गजराज भी गाजे । कायर थे, छिपा आँख वे रण-भूमि से भाजे ॥ सुभों ने किया दूर जब इन्सान का जामा । __ घन-घोर से संग्राम का तव सज गया सामां ॥ दोनो ही पक्ष आ गए, आकर अनी भिडी । सवको यकीन यह था कि दोनो में अब छिड़ी ॥ इतने में एक बात वहा ऐसी सुन पडी । - जिसने कि युद्ध-क्षेत्र में फैला दी गड़वडी ॥ हायो में उठे रह गए जो शस्त्र उठे थे। ___ मुंह रह गए वे मौन जो कहने को खुले थे ॥ ये सुन पड़ा-न वीरों के अव खून बहेंगे । भरतेश व वाहूवली खुद आके लड़ेंगे ॥ दोनों ही युद्ध करके स्व-बल आजमालेगे । हारेंगे वही विश्व की नजरो में गिरेंगे । दोनो ही वली, दोनो ही है चरम-शरीरी । धारण करेंगे बाद को दोनो ही फकीरी ॥ क्या फायदा है व्यर्थ में जो फौज कटाएं ? । बेकार गरीबों का यहां खून बहाएं ?

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