Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 111
________________ : १० : श्रवणबेल्गोल-स्तवन तुम प्राचीन कलाओं का आदर्श विमल दरशाते भारतके घ व गौरव-गढ़ पर जैन-केतु फहराते कला-विश्व के सुप्त प्राण पर अमृत-रस बरसाते निधियों के हत साहस में नवनिधि-सौरभ सरसाते आओ इस आदर्श कीति के दर्शन कर हरषाओ वन्दनीय हे जैनतीर्य तुम युग-युग में जय पाओ। शुभस्मरण कर तीर्थराज हे शुभ्र अतीत तुम्हारा फूल-फूल उठता है अन्तस्तल स्वयमेव हमारा सुरसरि-सदृश दहा दो तुमने पावन गौरव-धारा तीर्थक्षेत्र जग में तुम हो देदीप्यमान ५ वतारा खिले पुष्प की तरह विश्व में नवसुगन्ध महकाओ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ । दिव्य विध्यगिरि भव्य चन्द्रगिरि की शोभा है न्यारी पुलकित हृदय नाच उठता है हो बरबस आभारी श्रुत-केवली सुभद्रवाहु सम्राट् महा यश-धारी तप तप घोर समाधिमरण कर यहीं कीति विस्तारी . उठो पूर्वजों को गायाए जग का मान बढाओ वन्दनीय हे जैनतीर्य तुम युग-युगमें जय पाओ ।

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