Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 61
________________ मन्दिर और स्मारक आलिंगन कर लिया हो । वाहुबली को भरतेश्वर की प्रार्थना भी न रोक सकी । भरत ने कहा था कि "भाई | मेरे ९८ भाइयो ने ससार-त्याग कर के दीक्षा धारण कर ली है। यदि आप भी तपश्चरण को जायगे, तो यह राज्य सम्पदा मेरे किस काम आयगी ?" गोम्मटदेव ! आपकी वीरता प्रशसनीय है । जव आपके वडे भाई भरत ने प्रार्थना की, कि आप यह विचार छोड़ दे कि आपके दोनो पाव मेरी पृथ्वी में है। पृथ्वी न मेरी है और न आपकी। भगवान ने वतलाया है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र ही आत्मा के निजी गुण है। ऐसा सुनते ही आपने सर्व गर्व त्याग दिया और आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। गोम्मटदेव । यह आप ही के योग्य था। आपके तपश्चरण से आपको स्थायी सुख मिला तथा औरो को आपने मार्गप्रदर्शक का कार्य किया। आपने घातिया कर्मों का नाग करके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख प्राप्त किया और अघातिया कर्मों के नाश से आपने सिद्धत्व प्राप्त किया। हे गोम्मटदेव | जो लोग इन्द्र के समान सुगन्धित पुष्पो से आपके चरण कमल पूजते है, प्रसन्नचित्त होकर दर्शन करते है, आपकी परिक्रमा करते है और आपका गान करते है, उनसे अधिक पुण्यगाली कौन होगा ?" यह वर्णन थोडे-बहुत हेर-फेर के साथ 'भुजवलिशतक', 'भुजवलिचरित' 'गोम्मटेश्वर चरित', 'राजावलिकथा' तथा

Loading...

Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131