Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 77
________________ गोम्मट-मूर्ति की कुण्डली ४५ और राजा, महाराजा, सभी उस मूर्ति का पूजन करते है। सव ही जन-समुदाय उस पुण्य-शाली मूर्ति को मानता है और उसकी कीर्ति सव दिशाओ में फैल जाती है आदि शुभ वाते नवाग और लग्न से जानी जाती है। चन्द्रकुण्डली के अनुसार फल । - वृप राशि का चन्द्रमा है और यह उच्च का है तथा चन्द्रराशीग चन्द्रमा से बारहवा है और गुरु चन्द्र के साथ मे है तथा चन्द्रमा से द्वितीय मगल और दसवे बुध तथा वारहवे गुक्र है। अतएव गृहाध्याय के अनुसार गृह 'चिरजीवी' योग होता है। इसका फल मूर्ति को चिरकाल तक स्थायी रहना है। कोई भी उत्पात मूर्ति को हानि नही पहुचा सकता है। परन्तु ग्रह स्पष्ट के अनुसार तात्कालिक लग्न से जव आयु वनाते है तो परमायु तीन हजार सात सौ उन्नीस वर्प, ग्यारह महीने और १९ दिन आते है। मूर्ति के लिए कुण्डली तथा चन्द्रकुण्डली का फल उत्तम है और अनेक चमत्कार वहाँ पर हमेशा होते रहेगे। भयभीत मनुष्य भी उस स्थान मे पहुच कर निर्भय हो जायगा। इस चन्द्रकण्डली मे 'डिम्भाख्य' योग है। उसका फल भी अनेक उपद्रवो से रक्षा करना तथा प्रतिष्ठा को बढाना है। कई अन्य योग भी है किन्तु विशेष महत्त्वपूर्ण न होने से नाम नही दिये है। प्रतिष्ठा के समय उपस्थित लोगो के लिए भी इसका उत्तम फल रहा होगा। इस मुहूर्त मे वाण पचक अर्थात् रोग, चोर, अग्नि, राज, मृत्यु इनमे से कोई भी वाण नहीं है। अत

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