Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 58
________________ २६ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ को सौंप दिया और आप तपस्या करने वन में चले गए । थोडे ही काल मे तपस्या के द्वारा उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । भरत ने जो अब चक्रवर्ती होगए थे, पोदनपुर मे स्मृति रूप उनकी शरीराकृति के अनुरूप ५२५ धनुष प्रमाण की एक प्रतिमा स्थापित कराई, समयानुसार मूर्ति के आसपास का प्रदेश कुक्कुट सर्पो से व्याप्त हो गया, जिससे उस मूर्ति का नाम कुक्कुटेश्वर पड गया । धीरे-धीरे वह मूर्ति लुप्त हो गई और उसके दर्शन केवल मुनियों को ही मत्रशक्ति से प्राप्त होते थे । गगनरेश राचमल्ल के मंत्री चामुण्डराय ने इस मूर्ति का वृत्तान्त सुना और उन्हें इसके दर्शन करने की अभिलाषा हुई । पर पोदनपुर की यात्रा अशक्य जान उन्होने उसी के समान एक सौम्य मूर्ति स्थापित करने का विचार किया और तदनुसार इस मूर्ति का निर्माण कराया ।" आगे कवि ने अपने भावो को अत्यन्त रसपूर्ण सुन्दर कविता में वर्णन किया है । जिसका भाव इस प्रकार है "यदि कोई मूर्ति अत्युन्नत (विशाल) हो, तो यह आवश्यक नही कि वह सुन्दर भी हो । यदि विशालता और सुन्दरता दोनों हो, तो यह आवश्यक नही, कि उसमे अलौकिक वैभव । भी हो । गोम्मटेश्वर की मूर्ति में विशालता, सुन्दरता और अलौकिक वैभव, तीनो का सम्मिश्रण है । अत गोम्मटेश्वर की मूर्ति से बढकर ससार मे उपासना के योग्य क्या वस्तु हो सकती है ? यदि माया ( शची) इनके रूप का चित्र न वना सकी, १,००० नेत्र वाला इन्द्र भी इनके रूप को देखकर तृप्त न ۲

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