Book Title: Shravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Author(s): Rajkrishna Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 41
________________ ऐतिहासिक इतिवृत्त आत्मिक दीप्ति को प्रकाशित करते हुए प्रचण्ड घातिया कर्म शत्रुओ को निहत किया और त्रैलोक्य पदार्थो को हस्तामलक सदृश स्पष्ट प्रदर्शित करनेवाले अलौकिक केवलज्ञान को प्राप्त किया । इधर राजर्षि भरत को एक ही साथ तीन समाचार मिले । प्रथम भगवान को केवलोत्पत्ति, द्वितीय अन्त पुर मे पुत्र का जन्म और तृतीय आयुधशाला मे चक्ररत्न की उत्पत्ति । भरत ने सोचा कि भगवान को केवलज्ञान होना धर्म का फल है पुत्र का उत्पन्न होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्र का उत्पन्न होना अर्थ पुरुषार्थ का फल है, अथवा यह सभी धर्म पुरुषार्थ का पूर्ण फल है क्योकि अर्थ धर्मरूपी वृक्ष का फल है और काम उसका रस है। अत. सव कार्यों में सबसे पहले भगवान की पूजा ही करनी चाहिए। यह सोचकर महाराज भरत अपने छोटे भाइयो, अन्त पुर की स्त्रियो तथा नगर के लोगो के साथ भगवान के समवशरण मे गए। वहाँ भगवान ने अतिशय और गम्भीर निरक्षरी दिव्यध्वनि द्वारा षड्द्रव्य, साततत्त्व, पचास्तिकाय, छह लेश्याए, चौदह गुणस्थान, चौदह मार्गणा, अनुयोग, जीव के भाव, चारो गतिया और दश धर्म आदि का निरूपण किया। भरत भगवान को वारम्वार प्रणाम करके अपने महल को पधारे। इसके पश्चात् भरतेश्वर ने विधिपूर्वक चक्ररत्न की पूजा की और पुत्रोत्पत्ति का उत्सव मनाया। तदनतर भरत ने दिग्विजय के लिए प्रयाण किया । चक्रवर्ती के पुण्यप्रताप से सव राजा भरत के आधीन हुए तथा

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