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दूसरा परिच्छेद तपस्वी-जीवन
१. पहला वर्ष (वि० पू० ५१२-५११)
राजकुमारोचित सुख-वैभवों में पोसे पले ज्ञातपुत्र वर्धमान ने महावीरोचित अन्तिम कोटि की दुष्कर जीवन-चर्या अंगीकार की। राज्यवैभव, देश-नगर और कुटुम्ब-परिवार को तृणवत् छोड़कर आपने त्यागी जीवनश्रामण्य को स्वीकार किया और भाई-बंधुओं से अन्तिम बिदा ले ज्ञातखण्ड से आगे विहार कर गये ।
ज्ञातखण्ड से चलकर एक मुहूर्त दिन शेष रहते भगवान् कर्मारग्राम पहुँचे और रात्रि वहीं बिताने के विचार से कायोत्सर्ग में स्थिर हो गये ।
संध्या के समय वहाँ एक ग्वाला बैलों के साथ आया और बैलों को वहीं छोड़ गाँव में चला गया । जब वह कार्य से निवृत्त हो गाँव से लौय तो बैल वहाँ नहीं थे । ध्यानस्थित भगवान् के पास जाकर उसने पूछा'देवार्य ! क्या आप जानते हैं कि यहाँ से बैल कहाँ गये हैं।' महावीर की तरफ से गोप को कोई उत्तर नहीं मिला । उसने सोचा-देवार्य को मालूम न होगा । वह चला गया और बैलों की खोज में रात भर जंगल में भटकता रहा पर उसे बैल न मिले ।
सारी रात घूमफिर कर ग्वाला रात्रि के अन्तिम भाग में वहाँ लौटा तो भगवान के निकट बैल बैठे देखकर वह महावीर पर झल्ला कर बोला'बैलों की बात जानते हुए भी तुमने मुझे सारी रात भटकाया है' और हाथ में रास लिए वर्धमान को मारने के लिए दौड़ा पर उसके पाँव वहीं स्तब्ध
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